पाठ 6 : बादल राग / संध्या सुन्दरी

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सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ


प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय

छायावाद के चार स्तम्भों में से एक महाकवि निराला का जन्म बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर जिले में 1899 ई. में हुआ था। माँ द्वारा सूर्य का व्रत रखने तथा निराला के रविवार के दिन जन्म लेने के कारण इनका नाम सूर्यकान्त रखा गया, परन्तु बाद में साहित्य के क्षेत्र में आने के कारण इनका उपनाम ‘निराला’ हो गया। इनके पिता पण्डित रामसहाय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के बैसवाड़ा क्षेत्र के जिला उन्नाव के गढ़कोला ग्राम के निवासी थे तथा महिषादल राज्य में रहकर राजकीय सेवा में कार्य कर रहे थे। निराला जी की प्रारम्भिक शिक्षा महिषादल में हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात् उन्होंने घर पर ही संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी का अध्ययन किया। माता-पिता के असामयिक निधन, फिर पत्नी की अचानक मृत्यु, पुत्री सरोज की अकाल मृत्यु आदि ने निराला के जीवन को करुणा से भर दिया। बेटी की असामयिक मृत्यु की अवसादपूर्ण घटना से व्यथित होकर ही इन्होंने ‘सरोज-स्मृति’ नामक कविता लिखी। कबीर का फक्कड़पन एवं निर्भीकता, सूफियों का सादापन, सूर-तुलसी की प्रतिभा और। प्रसाद की सौन्दर्य-चेतना का मिश्रित रूप निराला के व्यक्तित्व में झलकता है।। इन्होंने कलकत्ता में अपनी रुचि के अनुरूप रामकृष्ण मिशन के पत्र ‘समन्वय’ का सम्पादन-भार सम्भाला। इसके बाद मतवाला’ के सम्पादक मण्डल में भी सम्मिलित हए। लखनऊ में गंगा पुस्तकमाला’ का सम्पादन तथा ‘सधा’ पत्रिका के लिए सम्पादकीय भी लिखने लगे। जीवन के उत्तरार्द्ध में इलाहाबाद चले आए एवं आर्थिक स्थिति अत्यन्त विषम हो गई। आर्थिक विपन्नता भोगते हए प्रयाग में 15 अक्टूबर, 1961 को ये चिरनिद्रा में लीन हो गए।

साहित्यिक गतिविधियाँ:- छायावाद के प्रमुख स्तम्भों में से एक कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की उपन्यास, कहानी, आलोचना, निबन्ध आदि सभी क्षेत्रों में ही रचनाएँ मिलती हैं तथापि यह कवि के रूप में अधिक विख्यात हुए। इनकी रचनाओं में छायावाद के साथ-साथ प्रगतिवादी युग का भी प्रभाव । पड़ा है। इन्होंने हिन्दी साहित्य की तत्कालीन काव्य परम्परा का खण्डन करते हुए स्वछन्द एवं छन्दमुक्त कविताओं की रचना आरम्भ की।

कृतियाँ:- इनकी प्रमुख काव्य कृतियों में अनामिका, परिमल, गीतिका, अणिमा, नए पत्ते, आराधना आदि। लम्बी कविताएँ तुलसीदास, राम की शक्ति पूजा, सरोज-स्मृति आदि।
गद्य रचनाएँ : चतुरी-चमार, बिल्लेसुर बकरिहा, प्रभावती, निरूपमा आदि उल्लेखनीय हैं।




(प्रथम भाग: बादल राग) पद्यांशों की सन्दर्भ सहित हिन्दी में व्याख्या:


1.

झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर!
राग-अमर! अम्बर में भर निऊ रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर कठोर-
राग-अमर! अम्बर में भर निज रोर!

शब्दार्थ:मृदु-कोमल, घन घोर-कठोर बादल, अम्बर-आकाश: निज रोर-अपने कोलाहल का स्वर, गिरि-पर्वत, मरु-रेगिस्तान, तरु-वृक्षा; मर्मर-सरसराहट का स्वर, तड़ित-विद्युत, गति-चाल, विजन-निर्जन, कानन-जंगल; आनन-मुख, रव-शोर।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महाकवि । सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’ द्वारा रचित ‘बादल-राग’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश में कविवर निराला बादलों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि हे बादलों! तुम मन्द-मन्द झूमते हुए अपनी घनघोर गर्जना से सम्पूर्ण वातावरण को भर दो। अपने शोर से आकाश में एक ऐसा संगीत छोड़ दो, जो अमर हो। हे बादल! तुम धरती पर ऐसे बरसो, जिससे झर-झर ध्वनि निर्झरों, पर्वतों एवं सरोवरों में भर जाए। झरने एवं सरोवर जल से परिपूर्ण होकर सरसता का संचार करें। तुम अपने स्वर से, अमर संगीत से प्रकृति के कण-कण में नवजीवन का संचार करो, जिससे प्रत्येक घर नवजीवन की स्वर-लहरी से ध्वनित हो उठे। तुम ऐसे बरसो, जिससे मरुस्थल के वृक्ष हरे-भरे होकर मर्मर ध्वनि करते हुए लहराने लगें। समुद्र, नदी आदि में बिजली की गति भर जाए, उसके विकास की गति देखकर पवन भी आश्चर्यचकित हो जाए। प्रत्येक व्यक्ति के मन में, गहन जंगलों में, सुनसान स्थलों में तुम अपना अमर संगीत भर दो। प्रत्येक व्यक्ति को आनन्द प्रदान करो, हर्षित करो और उन्हें विषम परिस्थितियों को सहन करने के लिए आवश्यक कठोरता प्रदान करो। तुम ऐसा मधुर एवं अमर संगीत पैदा करो, जो सम्पूर्ण आकाश में भर जाए।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: भावात्मक एवं प्रगीतात्मक, छन्द: मुक्त, अलंकार वीप्सा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: प्रसाद , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा



2.

अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!

शब्दार्थ:वर्ष के हर्ष-परे साल में सबसे अधिक आनन्द को प्रदान करने वाले; रसधार आनन्द की धारा, जल की धारा; पार आकाश के दूसरी ओर; निज यथार्थ; गर्जन गर्जना; भैरव भीषण।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महाकवि । सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’ द्वारा रचित ‘बादल-राग’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश में कविवर निराला बादलों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि वर्ष भर में सबसे अधिक आनन्द प्रदान करने वाले बादल तुम अपनी जल की धारा से सम्पूर्ण वातावरण को आनन्दमय कर दो अर्थात् वर्षा की बूंदों को बरसा। कर सम्पूर्ण प्रकृति के कण-कण में नवजीवन का संचार कर दो, क्योंकि बादलों के बरसने से सम्पूर्ण प्रकृति आनन्दविभोर हो उठती है, इसलिए तुम अपनी रसधारा को बरसाकर सम्पूर्ण धरती को रससिक्त कर दो। कवि कहता है कि आनन्द प्रदान करने वाले बादल तुम अपनी वर्षा की बूदों से सम्पूर्ण वातावरण को भर दो। तुम ऐसे बरसो कि चारों ओर बरस-बरस कर आनन्द की धारा बह जाए अर्थात् प्रकृति को आनन्दमय बना दो। हे बादल! तुम धरती पर अत्यधिक बरसकर अपनी भीषण गर्जना के यथार्थ रूप से मुझे भी परिचित कराओ। कहने का तात्पर्य । यह है कि कवि बादलों को इतना अधिक बरसने के लिए कह रहा है कि तुम बरसकर मुझे भी अपने साथ बहाकर ले चलो। फलस्वरूप इस भीषण संसार में जगत् के उस पार पहुँचकर मैं भी तुम्हारे गर्जना भरे उस संसार को देखू जिसे। भयावह कहा गया है। हे बादल! तुम इतना बरसो कि मेरे अस्तित्व को अपने में। विलीन कर दो।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: भावात्मक एवं प्रगीतात्मक, छन्द: मुक्त, अलंकार वीप्सा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: प्रसाद , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा



3.

उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल-
मेरे पागल बादल!
धंसता दलदल,
हँसता है नद खल-खल
बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।

शब्दार्थ:उथल-पुथल-उलट-पलट, हलचल, दलदल कीचड़ नद-नदी: खल-खल-खिलखिलाकर।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महाकवि । सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’ द्वारा रचित ‘बादल-राग’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: कवि बादलों का आह्वान करता हुआ कहता है कि हे बादलों! तुम इतना बरसो कि मेरे हृदय को आनन्दविभोर कर उलट-पलट कर दो अर्थात मेरे मन में हलचल पैदा कर दो। तम्हारे बरसने से दलदल धंस जाते । हैं। समुद्र खिल-खिलाकर हँसने लगता है। सरिताओं का जल कलकल कीnध्वनि से तुम्हारा ही यशोगान करने लगता है। इतना बरसो कि वर्षा के पानी से मिट्टी जमीन में दब जाए अर्थात् वह मिट्टी दलदल का रूप लेकर पुनः धरा में विलीन हो जाए। कवि बादलों को इतना बरसने के लिए कह रहा है कि नदियाँ वर्षा के पानी से भरकर हिलोरे खाने लगें अर्थात नदियों को पानी से लबालब भर देने के लिए कवि ने कहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि बादल तू इतना बरस कि कही भी पानी का अभाव न हो, नदियाँ कुलकुल, कलकल की ध्वनि से सदैव बहती रहें, सम्पूर्ण पृथ्वी भावविभोर होकर खिलाखलाकर हँसती रहे।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: भावात्मक एवं प्रगीतात्मक, छन्द: मुक्त, अलंकार वीप्सा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: प्रसाद , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा



4.

देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल बेकल,
इस मरोर से—इसी शोर से-
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
रास अमर! अम्बर से भर निज रोर!

शब्दार्थ:महा विकल-अत्यधिक व्याकुल, बेकल-बैचेन; मरोर-घुमाव-फिराव, चक्कर,क सघन-गहरा, घना; गुरु-अधिक; गहन-गम्भीर; रोर-शोर; छोर–किनारा।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित महाकवि । सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’ द्वारा रचित ‘बादल-राग’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: कवि कहता है हे बादल! तुम्हें बरसता देख सम्पूर्ण पृथ्वी भावविभोर हो । उठती है। वर्षा की बूंदों को देखकर मन खशी से नाच उठता है। बादलों के बरसने से न केवल हर्ष की लहर चारों ओर फैल जाती है, अपित मन बैचेन/व्याकुल होकर वर्षा की। बूंदों में ही मदमस्त हो जाना चाहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा करते बादलों को देखकर कवि का हृदय प्रसन्नता से भर उठता है और उसका मन वर्षा के पानी में मदमस्त हो जाने को व्याकुल है अर्थात् वह स्वयं को वर्षा के पानी में खो देना चाहता है। अत: कवि के व्याकुल मन ने उसे दुविधा की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। कवि बरसते हुए बादलों को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे बादल! मुझे आसमान का वह छोर अर्थात् किनारा दिखा, जो अत्यधिक डरावना प्रतीत हो रहा था अर्थात् वह किनारा जिसकी थाह अत्यधिक गहरी व डरावनी थी। कवि कहता है कि मुझे अपने साथ बहाकर आकाश का वह किनारा दिखा दो और आकाश के साथ मेरे हृदय में भी अपना गम्भीर स्वरयुक्त अमर संगीत भर दो। तुम ऐसा मधुर एवं अमर संगीत पैदा करो, जो सम्पूर्ण आकाश में फैल जाए।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: भावात्मक एवं प्रगीतात्मक, छन्द: मुक्त, अलंकार वीप्सा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: प्रसाद , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा




(द्वितीय भाग: सन्ध्या-सुन्दरी) पद्यांशों की सन्दर्भ सहित हिन्दी में व्याख्या:


1.

‘दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे।
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किन्तु जरा गम्भीर, नहीं है उनमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक
गुंथा हुआ उन धुंघराले काले काले बालों से
हृदयराज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।

शब्दार्थ:दिवसावसान-दिवस का अन्त अर्थात् सन्ध्या; मेघमय-बादलों से युक्तः सन्ध्या सुन्दरी-सन्ध्या रूपी सुन्दरी परी-सी-अप्सरा के समान: तिमिरांचल-अन्धकार पूर्व अँचल; हास-विलास-हास और आनन्द, अभिषेक-राजतिलक

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या:शप्रस्तुत काव्य पंक्तियों के माध्यम से कवि निराला कहते हैं। कि दिन की समाप्ति का समय है और मेघों से घिरे हुए आकाश से सन्ध्यारूपी सुन्दरी एक परी के समान धीरे-धीरे नीचे उतर रही है। वह अपने आँचल में अन्धकार को भरे हुए चली आ रही है। सन्ध्या के आगमन के साथ धरती पर धीरे-धीरे चारों ओर अन्धकार फैलने लगता है। अन्धकार से भरा उसका आँचल एकदम शान्त है अर्थात् सन्ध्या के समय चारों ओर वातावरण में शान्ति व्याप्त हो गई है। उसमें ज़रा भी चंचलता का आभास नहीं मिलता। सन्ध्यारूपी सुन्दरी के अधराधर मधुर हैं, किन्तु उसकी मुखमुद्रा गम्भीर है। उसमें मोद व प्रसन्नता को व्यक्त करने वाली चेष्टाओं का अभाव है। सन्ध्या के समय सुन्दरी के काले होते बालों में गुँथा एक तारा है, जो अभिषेक का प्रतीक है अर्थात् उसके काले घुघराले बालों में गुंथा हुआ एक ही तारा हँस रहा है और वह हँसता हुआ तारा ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानों वह अपने हृदय-राज्य की रानी का अभिषेक कर रहा हो।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: पचित्रात्मक एवं वर्णनात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, पुनरुक्तिप्रकाश व विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



2.

अलसता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली
सखी नीरवता के कन्धे पर डाले बाँह,
छाँह-सी अम्बर पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथों से कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुनझुन-रुनझुन नहीं,
सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा “चुप, चुप, चुप’
है गूंज रहा सब कहीं-

शब्दार्थ:अलसता-आलस्य, मादकता, नीरवता-सुनसान, शान्त, मौन;अम्बर पथ-आकाश मार्ग; अनुराग-राग-आलाप-प्रेम-राग का संगीत; नूपुर-घुघरू; अव्यक्त-जिसे व्यक्त न किया जा सके।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश में कविवर निराला ने सन्ध्या-सुन्दरी को। आलस्य की लता के समान बताया है, फिर भी वह कोमलता की कली है । अर्थात् आलस्य विद्यमान होते हुए भी उसमें कोमलता का गुण विद्यमान है।। आगे कवि नीरवता को सन्ध्या सुन्दरी की सखी के रूप में चित्रित करते । हए कहता है कि सन्ध्या सुन्दरी अपनी सखी नीरवता के कन्धे पर बाँह रख। हुए छाया के समान सूक्ष्म और अदृश्य रूप से आकाश-मार्ग से उतरती । चली आ रही है। कहने का तात्पर्य है कि सन्ध्या सुन्दरी, कोमल कली के समान खिली नीरवता के कन्चे पर बाँह डालकर छाया के समान अम्बर पंथ से उतर चली है, उसके हाथों में कोई वीणा नहीं बजती, न ही प्रेम के संगीत का आलाप सुनाई पड़ता है। उसके घुघरूओं से भी रुनझुन ध्वनि सनाई नहीं पड़ती अर्थात् सन्ध्या सुन्दरी अपने भीतर अन्धकार का साम्राज्य लेके आ रही है, उसके आने से किसी प्रकार की ध्वनि नहीं होती चारों ओर अन्धकारमय वातावरण होता है। निराला जी कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में केवल ‘चुप, चुप, चुप’ का अस्फुट (अत्यन्त मन्द) स्वर सब जगह गूंज रहा है तात्पर्य यह है कि सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य है।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: मानवीकरण, यमक, विरोधाभास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



3.

व्योम-मण्डल में-जगतीतल में-
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल-कमलिनी-दल में-
सौन्दर्य-गर्विता के अति विस्तृत वक्षःस्थल में-
धीर वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में-
उत्ताल-तरंगाघात-प्रलय-घन-गर्जन-जलधि प्रबल में-
क्षिति में-जल में-नभ में-अनिल-अनल में-
सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा, ‘चुप, चुप, चुप
है गूंज रहा सब कहीं-

शब्दार्थ:व्योम मण्डल-आकाश मण्डल, जगतीतल-पृथ्वीतल; अमल- कमलिनी-दल में-निर्मल कमलिनी की पंखड़ियों में सौन्दर्य-गर्विता- रूपगर्विता; अति-विस्तृत-अत्यधिक चौड़े, विस्तार वाले, वक्षःस्थल- हृदय-स्थल; हिमगिरि-हिमालय; अटल-निश्चल, उत्ताल-ऊँची; तरंगाघात-लहरों की चोट, प्रलय- घन-प्रलय कालीन बादल, गर्जन जलधि-समुद्र की गर्जन; क्षिति-पृथ्वी; अनिल-वायु; अनल-अग्नि; अव्यक्त-अस्फुट, अनुभव न होने वाला।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कविवर निराला जी कहते हैं कि सम्पूर्ण आकाश मण्डल में, धरती पर शान्त सरोवर में, विचारमग्न कमलिनी के समूह में, अपने सौन्दर्य के मान में इठलाती नदी के विस्तृत वक्षःस्थल पर अर्थात् अपने अनुपम सौन्दर्य पर अभिमान करती हुई नदी की अत्यन्त । विशाल हृदय स्थल पर, धीर-वीर और गम्भीर मुद्रा में रहने वाले अटल। और अचल हिमालय की उत्तुंग चोटियों पर, निश्चल भाल के ऊपर उठते हुए शिखरों पर, प्रलयकालीन मेघ के समान गरजते हुए पर्वत के आकार वाले तरंगों से पूर्ण समुद्र पर, पृथ्वी तल में, विपुल जलराशि में, प्रकाश में, आकाश में, वायु में तथा सर्वत्र व्याप्त अग्नि में केवल यही एक अव्यक्त-सा शब्द ‘चुप-चुप-चुप’ गूंज रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य विद्यमान है। चुपचाप आती हुई सन्ध्या-सुन्दरी ने वातावरण की अनुकूलता की रक्षा में गाम्भीर्य और नीरवता की झीने परदे डाल दिए गए हैं।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



4.

और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह
प्याला एक पिलाती.
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के अगणित मीठे सपने,
अर्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कण्ठ से
आप निकल पड़ता तब एक विहाग।

शब्दार्थ:सस्नेह-स्नेहपूर्वक: अंक-गोद, विस्मृति-भूलना, भूला हुआ; अगणित असंख्य मीठे सपने-मधुर-मधर अभिलाषाएँ: निश्चलता-गतिहीनता. शान्ति: अनुराग-प्रेम: विरहाकुल-विरह से व्याकुल: कमनीय- सुन्दर; विहाग–अर्द्धरात्रि के बाद गाए जाने वाले रागा

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: कविवर निराला कहते हैं कि सन्ध्याकाल में अस्फुट या अनुभव न होने वाले ‘चुप-चुप’ के शब्द के अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं है। चारों ओर शान्ति ही विद्यमान है अर्थात् सन्ध्या ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। अपने आगमन से उसने सम्पूर्ण संसार को एक समान रूप में लाकर खड़ा कर दिया है मानो वह मदिरा की नदी को अपने साथ बहाती ला रही है और थके हुए प्राणियों को मदिरा का प्याला भरकर स्नेहपूर्वक पिलाकर उन्हें अपनी गोद में सुलाती है अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी रात्रि में चिरनिद्रा में लीन हो जाती है। वह सभी प्राणियों को उनके सुख-दुःख दर्द भुलाकर असंख्य मीठे-मीठे सपने दिखलाती है, जो उनकी इच्छाओं व कामनाओं के वशीभूत होते हैं। अत: इस प्रकार सन्ध्या स्वयं अपने अस्तित्व का त्याग कर रात्रि में लीन हो जाती है और रात्रि के इस दृश्य (रूप) को देखकर कवि का हृदय अनुराग से भर उठता है, उसे अपनी प्रिया की स्मृति सताने लगती है, परिणामस्वरूप विरह से व्याकुल होकर उसके कण्ठ से आह अर्थात वेदना के रूप में जो स्वर प्रस्फुटित होता है वही विहाग (अर्द्ध रात्रि के बाद गाया जाने वाला राग) का रूप ग्रहण कर लेता है।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: मानवीकरण, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



( पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)

प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1. झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर!
राग-अमर! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर कठोर-
राग-अमर! अम्बर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!


01 प्रस्तुत पद्यांश के कवि व शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश 'बादल राग’ कविता से अवतरित है तथा इसके कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हैं।

02 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादल के किस रूप का वर्णन किया है?

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादल के लोक कल्याणकारी रूप का वर्णन किया है। कवि ने बादलों से बरसकर सम्पूर्ण प्रकृति को कोमलता एवं गम्भीरता से भर देने का आग्रह किया है तथा उनसे सृष्टि को नवीन शक्ति प्रदान करने की अपेक्षा की है।

03 पार ले चल तू मुझको’, ‘बहा दिखा मुझको भी निज’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: कवि बादलों से इतना अधिक बरसने के लिए कह रहा है कि वह भी उसके साथ बह चले। फलस्वरूप इस भीषण संसार में जगत के उस पार पहुँचकर मैं भी तुम्हारे गर्जना भरे उस संसार को देखू जिसे भयावह कहा गया है। तुम बरसकर मेरे अस्तित्व को अपने में विलीन कर दो।

04 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादलों से क्या आह्वान किया है?

उत्तर: कवि ने बादलों से आह्वान करते हुए कहा है कि तुम मन्द-मन्द झूमते हुए अपनी घनघोर गर्जना से सम्पूर्ण वातावरण को भर दो। अपने शोर से आकाश में एक ऐसा संगीत छोड़ दो, जो अमर हो जाए।

05 निर्झर’ और ‘संसार’ शब्द में से उपसर्ग शब्दांश छाँटकर लिखिए।

उत्तर: निर्झर-निर (उपसर्ग), संसार-सम् (उपसर्ग)



प्रश्न 2. दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे।
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किन्तु जरा गम्भीर, नहीं है उनमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक
गुंथा हुआ उन घुघराले काले काले बालों से
हृदयराज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली
सखी नीरवता के कन्धे पर डाले बाँह,
छाँह-सी अम्बर पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथों से कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुनझुन-रुनझुन नहीं,
सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा “चुप, चुप, चुप”
है गूंज रहा सब कहीं-


01 पद्यांश के कवि व शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश ‘सन्ध्या सुन्दरी’ कविता से अवतरित है तथा इसके कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हैं।

02 सन्ध्यारूपी सुन्दरी का चित्रण कवि ने कैसे किया है?

उत्तर: सन्ध्यारूपी सुन्दरी का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया है कि सन्ध्यारूपी सुन्दरी के । अधराधर मधुर है, किन्तु उसकी मुखमुद्रा गम्भीर है। उसमें प्रसन्नता को व्यक्त करने । वाली चेष्टाओं का अभाव है। सध्या के समय सन्दरी के काले होते बालों में गैंथा एक तारा हा वह उसके सौन्दर्य को और अधिक बढ़ा देता है। इसी प्रकार कवि ने। सन्ध्यारूपी सुन्दरी का मनोहारी चित्रण किया है।

03 प्रस्तुत पद्यांश में ‘गुंथा हुआ तारा’ किसका प्रतीक है?

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में ‘गुंथा हुआ तारा’ सन्ध्या सुन्दरी के बालों में सुशोभित है जो ऐसा। प्रतीत हो रहा है, मानो वह अपने हृदय-राज्य की रानी का अभिषेक कर रहा हो।

04 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने सन्ध्या सुन्दरी को किसके समान बताया है?

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने सच्या सुन्दरी को आलस्य के समान बताया है, फिर भी वह। कोमलता की कली है अर्थात् आलस्य विद्यमान होते हुए भी उसमें कोमलता का गुण विद्यमान है।

05‘किन्तु कोमलता की वह कली। पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?

उत्तर: ‘किन्तु कोमलता की वह कली’ पंक्ति में ‘क’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ, अनुप्रास अलंकार है।







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