प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।
जीवन परिचय
प्रकृति की सुकुमार भावनाओं के कवि सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म हिमालय के सुरम्य प्रदेश कूर्मांचल (कुमाऊँ) के कौसानी नामक ग्राम में 20 मई, 1900 को हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित गंगादत्त पन्त तथा माता काbनाम श्रीमती सरस्वती देवी था। कौसानी के वर्नाक्यूलर स्कूल से प्रारम्भिकbशिक्षा पूर्ण कर ये उच्च विद्यालय में अध्ययन के लिए अल्मोड़ा के राजकीय हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। यहीं पर इन्होंने अपना नाम गसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन पन्त रखा। 1919 ई. में बनारस आगमन के पश्चात् यहीं से हाईस्कूल की परीक्षा उतीर्ण की। उसके बाद इलाहाबाद के ‘म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लेने के पश्चात् गाँधीजी के आह्वान पर इन्होंने कॉलेज छोड़ दिया, फिर स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, संस्कृत और बांग्ला साहित्य का गहन अध्ययन किया। उपनिषद्, दर्शन तथा आध्यात्मिक साहित्य की ओर उनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। पण्डित शिवाधार पाण्डेय ने इन्हें अत्यधिक प्रेरित किया।इलाहाबाद (प्रयाग) वापस आकर ‘रुपाभा’ पत्रिका का प्रकाशन करने लगे। बीच में प्रसिद्ध नर्तक उदयशंकर के सम्पर्क में आए और फिर इनका परिचय अरविन्द घोष से हुआ। इनके दर्शन से प्रभावित पन्त जी ने अनेक काव्य संकलन ‘स्वर्ण किरण’, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘उत्तरा’ आदि प्रकाशित किए। 1950 ई. में ये आकाशवाणी में हिन्दी चीफ प्रोड्यूसर और फिर साहित्य सलाहकार के पद पर नियुक्त हुए। 1961 ई. में इन्हें पद्मभूषण सम्मान, ‘कला एवं बूढ़ा चाँद’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, ‘लोकायतन’ पर सोवियत भूमि पुरस्कार तथा ‘चिदम्बरा’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। 28 दिसम्बर, 1977 को प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी प्रकृति की गोद में ही विलीन हो गए।
साहित्यिक गतिविधियाँ:- छायावादी युग के प्रतिनिधि कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने सात वर्ष की आयु में ही कविता लेखन प्रारम्भ कर दिया था। इनकी प्रथम रचना 1916 ई. में आई, उसके बाद इनकी काव्य के प्रति रुचि और बढ़ गई। पन्त जी के काव्य में कोमल एवं मृदुल भावों की अभिव्यक्ति होने के कारण इन्हें ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ कहा जाता है।
कृतियाँ:- इनकी निम्नलिखित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं
काव्य रचनाएँ: वीणा (1919), उच्छ्वास (1919), ग्रन्थि (1920), पल्लव । (1926), गुंजन (1932), युगान्त (1937), युगवाणी (1938), ग्राम्या (1940), स्वर्ण-किरण (1947), युगान्तर (1948), उत्तरा (1949), चिदम्बरा (1958), कला और बूढ़ा चाँद (1959), लोकायतन आदि।
गीति-नाट्य ज्योत्स्ना, रजत शिखर, अतिमा (1955)
उपन्यास : हार (1960)
कहानी संग्रह: पाँच कहानियाँ (1988)
1.
शान्त, स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनन्त नीरव भतल!
सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल.
लेटी है श्रान्त, क्लान्त. निश्चल!
तापस-बाला गंगा निर्मल, शशिमुख से दीपित मृदु करतल,
लहरें उर पर कोमल कुन्तल!
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलाम्बर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर!
शब्दार्थ: स्निग्ध-तरल, शीतल ज्योत्स्ना-चाँदनी: उज्ज्वल-सफेद: अपलक-एकटक; अनन्त-जिसका अन्त न हो, आकाश; नीरव-शान्त, नि:शब्द: भूतल-धरातल, पृथ्वी सेकत-बालू, रेतः शय्या-सेज, बिछावनः दुग्ध-दूध, धवल-सफेद, तन्वंगी-कृशकाय, पतली: ग्रीष्म-विरल-गर्मी के कारण शिथिल पड़ी हई: श्रान्त-थकी हुई, क्लान्त-शिथिल पसीने से भरी निश्चल-प्रवाहहीन; तापस-बाला-तपस्विनी बालिका; निर्मल-स्वच्छ, पावन शशिमख-चन्द्रमा के समान मुख, दीपित-प्रकाशित; मद करतल- कोमल हथेली: उर-छाती: कुन्तल-केश, बाल, तार-तरल-तारों के समान चंचल वा उज्ज्वल; नीलाम्बर-नीले आकाश रूपी वस्त्र; विभा-चमक; वर्तुल-गोलाकार, टेढ़ी।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: कवि कहता है कि चारों ओर शान्त, तरल एवं उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई है। आकाश टकटकी बाँधे पृथ्वी को देख रहा है। पृथ्वी अत्यधिक शान्त एवं शब्दरहित है। ऐसे मनोहर एवं शान्त वातावरण में क्षीण धार वाली गंगा बालू के बीच मन्द-मन्द बहती ऐसी प्रतीत हो रही है मानो कोई छरहरे, दुबले-पतले शरीर वाली सुन्दर युवती दूध जैसी सफेद शय्या पर गर्मी से व्याकुल होकर थकी, मुरझाई एवं शान्त लेटी हुई हो। गंगा के जल में चन्द्रमा का बिम्ब झलक रहा है, । जो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे गंगारूपी कोई तपस्विनी अपने चन्द्र-मुख को अपने ही कोमल हाथों पर रखकर लेटी हुई हो और छोटी-छोटी लहरें उसके वक्षस्थल। पर ऐसी प्रतीत होती है मानों वे लहराते हुए कोमल केश हैं। तारों भरे आकाश की चंचल परछाईं गंगा के जल में जब पड़ती है, तो वह। ऐसी प्रतीत होती है मानो गंगा रूपी तपस्विनी बाला के गोरे-गोरे अंगों के स्पर्श स । बार-बार कॉपता, तारों जड़ा उसका नीला आँचल लहरा रहा हो। उत्त। आकाशरूपी नीले आँचल पर चन्द्रमा की कोमल चाँदनी में प्रकाशित छोटी-छोटा, कोमल, टेढ़ी, बलखाती लहरें ऐसी प्रतीत होती हैं मानो लेटने के कारण उसके रेशमी साड़ी में सिलवटें पड़ गई हों।
काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली, शैली प्रतीकात्मक , छन्द स्वच्छन्द, अलंकार अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, सांगरूपक एवं स्वाभावोक्ति, गुण: माधुर्य , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा
2.
चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर
सिकता की सस्मित सीपी पर मोती की ज्योत्स्ना रही विचर
लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर!
मृदु मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर,
तिर रही, खोल पालों के पर!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर!
कालाकांकर का राजभवन सोया लज में निश्चिन्त, प्रमन ।
पलकों पर वैभव-स्वप्न सघन!
शब्दार्थ: सत्वर-शीघ्र, तेज; सिकता-बालू, रेत; सस्मित-मुसकराती हुई; पाल-नाव का वेग बढ़ाने हेतु उसके ऊपर लगाई गई चादर; लंगर-नाव को रोके रखने हेतु लोहे का बना भारी काँटा; मृदु-मधुर; मन्द-मन्द-धीमी-धीमी; मन्थर-धीरे; लघु तरणि-छोटी नाव; तिर रही-तैर रही, पर-पंख, शुचि- स्वच्छ, साफ: बिम्बित-प्रतिच्छायित: रजत पुलिन–चाँद का चमकता हुआ किनारा, रूपहले किनारे; अमन-शान्त; वैभव-ऐश्वर्य; सघन-प्रचुर।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: कवि पन्त जी कहते हैं कि वे चाँदनी रात के प्रथम पहर में नौका-विहार करने के लिए एक छोटी-सी नाव लेकर तेज़ी से गंगा में आगे बढ़ जाते हैं। गंगा के तट के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि गंगा का तट ऐसा रम्य लग रहा है मानो खुली पड़ी रेतीली सीपी पर चन्द्रमा रूपी मोती की चमक यानी चाँदनी भ्रमण कर रही हो। ऐसे सुन्दर वातावरण में गंगा में खड़ी नावों की पालें नौका-विहार के लिए ऊपर चढ़ गई हैं और उन्होंने अपने लंगर उठा लिए हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि एक साथ अनेक नावें नौका-विहार के लिए गंगा तट से खुली हैं। लंगर उठते ही छोटी-छोटी नावें अपने पालरूपी पंख खोलकर सुन्दर हंसिनियों के समान धीमी-धीमी गति से गंगा में तैरने लगीं। गंगा का जल शान्त एवं निश्चल है, जो दर्पण के समान शोभायमान है। उस जलरूपी स्वच्छ दर्पण में चाँदनी में नहाया रेतीला तट प्रतिबिम्बित होकर दोगुने परिमाण में प्रकट हो रहा है। गंगा तट पर शोभित कालाकाँकर के राजभवन का प्रतिबिम्ब गंगा जल में झलक रहा है। ऐसा लग रहा है मानो यह राजभवन गंगा जलरूपी शय्या पर निश्चिन्त होकर सो रहा है और उसकी झुकी पलकों एवं शान्त मन में वैभवरूपी स्वप्न तैर रहे हैं।
काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली, शैली प्रतीकात्मक , छन्द स्वच्छन्द, अलंकार अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, सांगरूपक एवं स्वाभावोक्ति, गुण: माधुर्य , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा
3.
नौका से उठतीं जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर!
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर नभ का अन्तस्तल;
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किए अविरल
फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल!
मल. पैरती परी-सी जल में कल,
रुपहरे कचों में हो ओझल!
लहरों के घूघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक मुख
दिखलाता मुग्धा-सा रुक-रुक!
शब्दार्थ: जल-हिलोर-पानी की लहर; नभ-आकाश; विस्फारित-खुले हुए, विस्तृत; नयन-आँख; तारक-तारे; ज्योतित-प्रकाशित; अन्तस्तल-हृदय; ओट-आड; अविरल-लगातार; झलमल-चमकीला; पैरती-तैरती, कल- सुन्दर; रुपहरे-श्वेत; कच-केश, बाल; ओझल-गायब; तिर्यक्-टेढ़ा, मुग्धा- रूप-आकर्षण देख मुग्ध होने वाली।जल-हिलोर-पानी की लहर; नभ-आकाश; विस्फारित-खुले हुए, विस्तृत; नयन-आँख; तारक-तारे; ज्योतित-प्रकाशित; अन्तस्तल-हृदय; ओट-आड; अविरल-लगातार; झलमल-चमकीला; पैरती-तैरती, कल- सुन्दर; रुपहरे-श्वेत; कच-केश, बाल; ओझल-गायब; तिर्यक्-टेढ़ा, मुग्धा- रूप-आकर्षण देख मुग्ध होने वाली।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: गंगा में नौका-विहार करते हुए कवि पन्त जी कहते हैं कि नौका चलने के कारण जल में तरंगें उठती हैं, जिससे जल में प्रतिबिम्बित आकाश इस छोर से उस छोर तक हिलता हुआ-सा प्रतीत होता है। जल में पड़ती तारों की परछाई को देखकर ऐसा आभास होता है, मानों तारों का दल जल के अन्दर के भाग में प्रकाश फैलाकर अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर कुछ ढूँढ रहा हो। गंगा में रह-रहकर उठने वाली चंचल लहरें भी अपने आँचल की आड़ में तारे रूपी छोटे-छोटे जगमगाते दीपकों को छिपाकर प्रतिक्षण लुकती-छिपती हुई-सी प्रतीत होती हैं। वहीं पास में शुक्र तारे की झिलमिलाती परछाई जल में किसी सुन्दर-सी परी की तरह तैरती हुई दिख रही है। श्वेत चमकती हुई जल-तरंगों में उस परछाई के ओझल होने का दृश्य इतना मनोरम है कि कवि को चाँदी से चमकते सुन्दर केशों में परी के छिप जाने का आभास होता है। जल में प्रतिबिम्बित दसमी का चाँद का तिरछा मुख कभी लहरों की चंचलता में छिप जाता है, तो कभी साकार हो उठता है। उसे देख कवि को ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने ही रूप-यौवन से मुग्ध होकर नायिका अपने मुख को कभी चूँघट में छिपा लेती हो, तो कभी उससे बाहर करती है।
काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली, शैली प्रतीकात्मक , छन्द स्वच्छन्द, अलंकार अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, सांगरूपक एवं स्वाभावोक्ति, गुण: माधुर्य , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा
4.
जब पहुँची चपला बीच धार
छिप गया चाँदनी का कगार!
दो बाँहों से दूरस्थ तीर धारा का कृश कोमल शरीर
आलिंगन करने को अधीर!
अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,
अपलक नभ, नील-नयन विशाल,
माँ के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक,
उड़ता हरने निज विरह शोक? छाया को कोकी का विलोक!
शब्दार्थ: चपला-नाव: कगार-किनारा: दूरस्थ-बहत-दूर तीर-किनारा; कृश -पतला-दुबला, दुर्बल; आलिंगन-गले मिलना, मिलना, मिलन, अधीर- व्याकुल; क्षितिज-वह स्थान जहाँ धरती और आकाश मिलते हए-से-प्रतीत होते हैं: विप-माल-पेड़ों की पंक्ति; भू-रेखा-भौंह, अराल -टेढ़ा, वक्र; उर्मिल-लहरों से युक्त; प्रतीप-विपरीत; विहग-पक्षी; विकल -व्याकुल; कोक-चकवा; कोकी-चकवी; विलोक-देख।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: कवि की नाव जब गंगा के मध्य धार में पहुँचती है, तो वहाँ से चन्द्रमा की चाँटनी में चमकते हुए रेतीले तट स्पष्ट दिखाई नहीं देते। कवि को । दर से दिखते दोनों किनारे ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे वे व्याकल होकर गंगा की। धारा रूपी नायिका के पतले कोमल शरीर का आलिंगन करना चाहते हों, जिसके लिए उन्होंने अपनी दोनों बाँहें फैला रखी हैं। दूर क्षितिज पर कतारबद्ध वृक्षों को देख ऐसा लग रहा है, मानो वे नीले आकाश के विशाल नेत्रों की तिरछी भौंहें हैं और धरती को एकटक निहार रहे हैं। कवि आगे कहते हैं कि वहाँ पास ही एक द्वीप है, जो लहरों के प्रवाह को विपरीत दिशा में मोड़ रहा है। गंगा की धारा के मध्य स्थित उस द्वीप को देख कवि को ऐसा आभास हो रहा है, जैसे कोई छोटा-सा बालक अपनी माता की छाती से लगकर सो रहा हो। वहीं गंगा नदी के ऊपर एक पक्षी को उड़ते देख कवि सोचने लगता है कि कहीं यह चकवा तो नहीं है, जो भ्रमवश जल में अपनी ही छाया को चकवी समझ उसे पाने की चाह लिए विरह-वेदना को मिटाने हेत व्याकुल हो आकाश में उड़ता जा रहा है।
काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली, शैली प्रतीकात्मक , छन्द स्वच्छन्द, अलंकार अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, भ्रान्तिमान एवं स्वाभावोक्ति, गुण: माधुर्य , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा
5.
पतवार घुमा, अब प्रतनु भार
नौका घूमी विपरीत धार।
डाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार।
बिखराती जल में तार-हार!
चाँदी के साँपों-सी रलमल नाचती रश्मियाँ जल में चल
रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल!
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
फैले फूले जल में फेनिल;
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!
शब्दार्थ: प्रतनु-हलका, अत्यन्त क्षीण: डॉडा-पतवार; करतल-हाथ; मुक्ताफल-मोतियों के फल, फेन-स्फार-झाग का समूह, अत्यधिक झाग; तार-हार-तारों की माला: रलमल-रेंगती हई: रश्मि-किरण; तरल-द्रव; लतिका-लता, बेल; उडु-नक्षत्र, तारे; उथला-कम गहरी सरिता-नदी; लग्गी-बल्ली: थाह-गहराई की माप, अन्दाजा; सहोत्साह-उत्साह के साथ।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: बीच धारा में पहुँचने पर अथाह जल होने के कारण नाव के भार में स्वाभाविक रूप से कमी आ जाती है। इसी आधार पर पन्त जी कहते हैं कि जब मेरी नाव गहरे पानी में धारा के मध्य जा पहँची और उसका भार अत्यधिक कमा हो गया, तब मैंने पतवारों को घमा कर नाव को धारा की विपरीत दिशा में मात्र दिया। पतवारों के चलने से जल में काफी मात्रा में झाग उत्पन्न हो रहा है। इस दृश्य को देख कवि को ऐसा आभास होता है, जैसे पतवार अपनी हथेलियों व फैलाकर उनमें झाग रूपी मोतियों को भर-भर कर तथा तारों रूपी माला तोड़-तोड़कर जल में बिखेर रहे हैं। पतवारों के चलने के कारण नदी के शान्त जल में उठने वाली लहरें चाँदी के साँपों-सी चमकती हुई आगे की ओर रेंगती हुई प्रतीत हो रही हैं। चन्द्रमा की किरणें लहरों पर पड़कर इस प्रकार नृत्य करती हुई-सी दिख रही है, जैसे बहते हुए जल में असंख्य सीधी रेखाएँ खिंची हुई हों। एक साथ उठती बहुत-सी लहरों में एक ही चन्द्रमा सौ-सौ चन्द्रमा और एक-एक तारा सौ-सौ तारे बनकर झिलमिला रहे हैं। उन्हें देख ऐसा आभास होता है, जैसे गंगा रूपी खेत में लहरों रूपी लताएँ फल-फूल रही हैं। किनारे की ओर लौटते हुए कवि कहते हैं कि अब नदी की गहराई कम होने लगी है और हम लग्गी से पानी की गहराई का अनुमान लगाते हुए अत्यन्त उत्साहित होकर घाट की ओर बढ़े जा रहे हैं।
काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली, शैली प्रतीकात्मक , छन्द स्वच्छन्द, अलंकार अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, गुण: माधुर्य , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा
6.
ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
उर के आलोकित शत विचार।
इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम!
शाश्वत नभ का नीला विकास, शाश्वत शशि का यह रजत हास,
शाश्वत लघु लहरों का विलास!
हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आरपार,
शाश्वत जीवन-नौका-विहार!
मैं भूल गया अस्तित्व ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण,
करता मुझको अमरत्व दान!
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!
शब्दार्थ: आलोकित-प्रकाशितः शत-सौ कम सिलसिला, प्रक्रिया; शाश्वत- अमर, चिरन्तनः उद्गम् उत्पत्ति: संगम्-मिलन; रजत हास-चन्द्रमा के समान हँसी; विलास-खेल, ऐश्वर्यः कर्णधार माँझी, नाव को खेने वाला (पार लगाने वाला); चिर-पुराना, प्राचीन; मरण मृत्यु: अस्तित्व ज्ञान अपनी सत्ता का ज्ञान, ईश्वर की अमरता का ज्ञान; प्रमाण-सबूत; अमरत्व अमरता।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि जैसे-जैसे हमारी नाका दूसरे किनारे की ओर बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमारे हृदय में सैकड़ों विचार उठते हैं। ऐसा लगता है मानो इस संसार का क्रम भी इस जलधारा के समान ही है। व्याख्या प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि जैसे-जैसे हमारी। का दसरे किनारे की ओर बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमारे हृदय में सैकड़ों विचार उठते हैं। ऐसा लगता है मानो इस संसार का क्रम भी इस जलधारा के समान ही है। जिस प्रकार धारा निरन्तर बहती चली आ रही है, आगे बह चुके जल का स्थान पीछे का जल ले लेता है, उसी प्रकार जीवन का बहाव भी निरन्तर है। जलधारा के समान ही जीवन का विस्तार शाश्वत है। जीवन का क्रम धारा की तरह कभी न टूटने वाला क्रम है। कवि पन्त कहते हैं कि आकाश का यह विस्तार शाश्वत है। चन्द्रमा की चाँदी जैसी हँसी अर्थात् चाँदनी भी चिरस्थायी है। लहरों का ऐश्वर्य भी निरन्तर बना रहता है। कवि कहता है कि संसार की जीवनरूपी नौका को चलाने वाले ईश्वर जीवन की गति में जन्म एवं मृत्यु का शाश्वत कर्म बनाए रखते हैं। जीवनरूपी नौका का विहार निरन्तर होता रहता है। । कवि कहते हैं कि चिन्तनशील होकर मैं अपने अस्तित्व का, सत्ता का ज्ञान भूल गया। जीवन की शाश्वतता का जलधारारूपी यह शाश्वत प्रमाण मुझे अमरत्व प्रदान करता है।
काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली, शैली प्रतीकात्मक , छन्द स्वच्छन्द, अलंकार अनुप्रास, मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, भ्रान्तिमान एवं स्वाभावोक्ति, गुण: माधुर्य , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा
1.
कहाँ आज वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगन्त छवि जाल,
ज्योति चुम्बित जगती का भाल?
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार।
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत श्रृंगार,
(स्वर्ण भृंगों के गन्ध विहार)
गूंज उठते थे बारम्बार
सृष्टि के प्रथमोद्गार।
नग्न सुन्दरता थी सुकुमार
ऋद्धि औं सिद्धि अपार।
अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दुःख दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण भ्रू-पात।
शब्दार्थ: पूर्ण पुरातन वैभवपूर्ण अतीत; सुवर्ण का काल-स्वर्ण-युग, वैभवपूर्ण समय; भूतियों वैभवों, ऐश्वर्यों: दिगन्त-दिशाओं का अन्तः छवि जाल-ऐश्वर्य का फैला हुआ जाल: ज्योति चुम्बित्-प्रकाश से परिपूर्ण, जगमगाता हुआ; जगत-पृथ्वी; भाल-मस्तक: राशि-राशि-कण-कण: वसुधा-धरती; सुषमा शोभा, साभार- आभार सहित, अभिसार-मिलन: प्रसून फूल; ,शाश्वत-चिरन्तन, कभी न समाप्त होने वाला स्वर्ण भंग-सनहरे भँवरे विहार-भ्रमणः बारम्बार-बार-बार प्रथमोद्गार-पहला उदगार, प्रथम विचार: नग्न-नंगी; सुकुमा-कोमल ओ सिद्धि वैभव और समृद्धि, अपार-अनन्त, अपरिमित; संसृति-सृष्टि, प्रभात-सवेरा, प्रातःकाल: विख्यात प्रसिद्ध दुरित-पाप, दैन्य-दीनता; जर-बुढ़ापा; भू-पा-भौहों का संकेत, शंका व भय से मुक्ति।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: भारतवर्ष के वैभवपूर्ण व समृद्धशाली अतीत से वर्तमान की तुलना करते हुए कवि पन्त कहते हैं कि आज हमारी समद्धि और ऐश्वर्य कहाँ विलुप्त हो गए, जो हमारे स्वर्णिम अतीत की पहचान थे? कभी हमारा देश सोने की चिड़िया कहलाता था, वह स्वर्ण युग कहाँ खो गया है? प्राचीन युग में यहाँ चारों दिशाओं में इस छोर से उस छोर तक सुख-समृद्धि का जाल फैला था। ज्ञान के प्रकाश से इस देश का मस्तक हर समय जगमगाता रहता था अर्थात् यहाँ जन-जन में शिक्षा का प्रचार था। धरती का कण-कण हरियाली से परिपूर्ण रहता था। चारों ओर हरी-भरी फसलों से लहलहाते खेतों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे पृथ्वी अपने यौवन के विस्तार पर हो, पृथ्वी पर चारों ओर फैली हरियाली ऐसी दिखती थी मानो पथ्वी का आभार मान स्वयं स्वर्ग की शोभा ही प्रेम-मिलन हेत यहाँ उतर आई हो। नित तरह-तरह के रंग-बिरंगे और सुगन्धित पुष्प खिलकर पृथ्वी का श्रृंगार करते रहते थे। उन पुष्पों के सुगन्ध से मदमस्त होकर उन पर गंजार करने वाले सुनहले भौरों को देख ऐसा प्रतीत होता था, जैसे सृष्टि भौंरों के रूप में घूम-घूम कर अपने हृदय के प्रथम उद्गार व्यक्त कर रही हो। उस समय धरती पर चहुँओर (चारों और) छाया हुआ सौन्दर्य उन्मुक्त और सुकुमार था। धरती अपूर्व वैभव और सुख-समृद्धि से पूर्ण थी। सचमुच वह वैभवशाली। युग विश्व के स्वर्णिम स्वप्न का युग था। वह युग सृष्टि के प्रथम प्रभात के समान आशा, उल्लास, सौन्दर्य व जीवन से परिपूर्ण था। कवि उस बीते हुए प्राचीन युग की विशेषताओं को आज न पाकर चिन्तित मुद्रा में पूछते हैं आज वह सत्य कहाँ खो गया, हमारे ऋषि-मुनियों ने जिसका मुक्त कण्ठ से गुणगान किया था? पूरी मानव जाति को ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले विश्वभर में प्रसिद्ध हमारे वेद आज कहाँ विलुप्त हो गए? कितने अच्छे वे दिन थे? जब हमारा समाज पाप, दुःख, दीनता आदि से मुक्त था और हम बुढ़ापा, मृत्यु जैसी विभीषिकाओं से भी परिचित न थे।
काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली , शैली: प्रतीकात्मक , छन्द : स्वच्छन्द ,अलंकार : अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: ओज, शब्द शक्ति लक्षणा
2.
हाय! सब मिथ्या बात!
आज तो सौरभ का मधुमास
शिशिर में भरता सूनी साँस!
वही मधुऋतु की गुंजित डाल
झुकी थी जो यौवन के भार,
अकिंचनता में निज तत्काल
सिहर उठती, जीवन है भार!
आज पावस नद के उद्गार
काल के बनते चिह्न कराल,
प्रात का सोने का संसार,
जला देती सन्ध्या की ज्वाल!
अखिल यौवन के रंग उभार
हड्डियों के हिलते कंकाल
कचों के चिकने, काले व्याल ।
केंचुली, काँस सिवार,
गूंजते हैं सबके दिन चार
सभी फिर हाहाकर।
शब्दार्थ: मिथ्या झठी सौरभ-सुगन्धः मधुमास-बसन्त का महीना; शिशिर-जाड़ा, मधुऋतु-बसन्त, गुजित-गुंजन से परिपूर्ण: यौवन-जवानी: अकिंचनता-निर्धनता: निज-अपना: तत्काल-उसी समय: सिहर-काँप उठनाः पावस नद-बरसाती नदी; उद्गार-उमड़ना; कराल कठोर, भयंकर. प्रात-सवेरा; ज्वाल-ज्वाला, आग; अखिल-सम्पूर्ण कच-केश. बाल. व्याल-सर्प, केचुली-सॉप द्वारा छोड़ी गई उसकी चमड़ी की ऊपरी परतः काँस-एक फूल, सिवार-काई वाली घास।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: अतीत के स्वर्णिम युग को स्मरण करते हुए पन्त जी कहते हैं कि । वर्तमान समय की दयनीय दशा को देखकर कल के वैभव व समृद्धि का भला कौन । विश्वास करेगा। आज तो अतीत की वे सारी बातें व्यर्थ व झूठी प्रतीत होती हैं। आज तो चारों ओर सुगन्ध बिखेर देने वाला बसन्त, शिशिर अर्थात् जाड़े का रूप धारण कर निर्जनता में गहरी साँसे भर रहा है अर्थात् मानव जीवन की सुख-समृद्धियाँ आज दुःख और दीनता में बदल गई हैं। बसन्त ऋतु में भौंरों के समूहों से गुंजायमान वृक्षों की जो डालियाँ नए-नए पत्तों और मंजरों-फूलों से लदकर झुक जाती थीं, आज वही डालियाँ नव पत्ते, मंजर व पुष्पों के लिए तरस रही हैं। दूसरों को सुख आनन्द पहुँचाने वाली डालियाँ आज अपने ही जीवन के लिए भार बन गई हैं। इस प्रकार, कवि उक्त उदाहरणों के द्वारा यह स्पष्ट करना चाहता है कि समय परिवर्तनशील है। समय की परिवर्तनशीलता का उल्लेख करते हुए कवि कहते हैं कि आज वर्षा ऋतु में बाढ़ लाकर जो नदियाँ चारों ओर भीषण तबाही मचाती हैं, वही नदियाँ वर्षा ऋतु के बीत जाने के पश्चात्, अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं और रेत, कचरा, झाड़-झंखाड़ आदि के रूप में बस अपने कुछ चिह्न छोड़ जाती हैं। सुख के बाद दुःख के आने का दूसरा उदाहरण देते हुए कवि कहते हैं कि सवेरा होने पर सूर्य की प्रथम सुनहली किरणों के कारण समस्त धरती और पूरी प्रकृति सोने के रंग में रंग जाती है, पर दिन चढ़ने पर सूर्य की आग (लाल प्रकाश) उस सुनहले संसार को जला कर भस्म कर देती है। यौवनावस्था में शरीर के सुन्दर रंग और उभार उसे मजबूत और आकर्षक बना देते हैं, किन्तु वृद्धावस्था आने पर वहीं मानव-शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह जाता है और उसमें कोई आकर्षण शेष नहीं रहता। काले सर्प के सदश चिकने सुन्दर। केश सर्प की केंचुली-सी मलिन (बेजान), काँस के पुष्प से सफेद एवं काई के समान। उलझे हुए दिखने लगते हैं। इस प्रकार, हमारे जीवन में सुख स्थायी रूप से नहीं। ठहरता। सुख के चार दिनों के बीतने के बाद दुःख का आना तय है।
काव्य सौंदर्य: रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली , शैली: प्रतीकात्मक , छन्द : स्वच्छन्द ,अलंकार : अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: ओज, शब्द शक्ति लक्षणा
3.
आज बचपन का कोमल गात
जरा का पीला पात
चार दिन सुखद चाँदनी रात
और फिर अन्धकार, अज्ञात!
शिशिर-सा झर नयनों का नीर
झुलस देता गालों के फूल!
प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर
अधर जाते अधरों को भूल!
मृदुल होठों का हिमजल हास
उड़ा जाता नि:श्वास समीर;
सरत भौंहों का शरदाकाश
घेर लेते घन, घिर गम्भीर।
शून्य साँसों का विधुर वियोग
छुड़ाता अधर मधुर संयोग!
मिलन के पल केवल दो चार,
विरह के कल्प अपार!
शब्दार्थ: गात-शरीर; जरा-बुढ़ापा; पात-पत्ता; अज्ञात-जो जाना हुआ न । हो; नयन आँख; नीर-अश्रु, पानी; प्रणय-प्रेम; अधीर-धैर्यहीन; अधर-होंठ; । मदल-मधुर, मीठा; हिमजल हास-ओस की बूंदों के समान निर्मल पवित्र । हँसी: निःश्वास-साँस लेने-छोड़ने के क्रम में प्राण वायु का बाहर निकलना; समीर-वायु, हवा; शरदाकाश-शरद् काल का स्वच्छ आकाश; घन-बादल; विधुर-विकल, व्याकुल; कल्प-क्षण; अपार-अनन्त, अत्यधिक।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि आज बचपन का । जो कोमल, सुन्दर शरीर है, वृद्धावस्था आ जाने पर वही शरीर पीले, सूखे, खुरदरे पत्ते के समान हो जाएगा। जीवन में सुख देने वाली चाँदनी रातें हैं और सुख के क्षण बहुत थोड़े समय के लिए ही रहते हैं, शेष जीवन में तो अज्ञात अन्धकार से परिपूर्ण रात्रि मौजूद रहती है और सारे सुख नष्ट हो जाते हैं। दुःख के क्षणों में आँसू इस प्रकार गिरते हैं, जैसे पतझड़ में पेड़ों से पीले पत्ते झड़ते हैं। आँखों से गिरते रहने वाले आँसू, पुष्पों के समान गालों को इस प्रकार झुलसा देते हैं, जैसे शिशिर की ओस फूल एवं पत्तों को झुलसा देती है। उस समय प्रेमी के अधर प्रणय के चुम्बनों को भूलकर अपने प्रिय के अधरों को भी भूल जाते हैं। युवावस्था में जिन होंठों पर हमेशा ओस कणों-सी निर्मल और आकर्षक हँसी विद्यमान रहती है। वृद्धावस्था में वही होंठ गहरी साँसों के छोड़ने से मलिन पड़ जाते हैं, उनकी हँसी गायब हो जाती है। चिन्ताविहीन यौवन में जो भौहें शरद ऋतु के स्वच्छ आकाश की तरह स्वाभाविक और सरल होकर मुख की शोभा बढ़ाती हैं, उम्र बढ़ने के साथ-साथ उन्हीं भौंहों से चिन्ता की लकीरें स्पष्ट ‘झाकती दिखती हैं। उनकी सरलता लुप्त हो जाती है और वे सिकुड़ने लगती है। मिलन के सुखद समय में प्रेमी-प्रेमिका के जो होंठ आपस में जुड़े होते हैं, वियोग के विकट समय में वही होंठ विरह-वेदना से व्याकुल हो गहरी साँसें छोड़ने के लिए विवश हो जाते हैं। इस प्रकार, मिलन का समय अल्प जबकि वियोग का दीर्घ होता है अर्थात सुख कुछ समय साथ रहकर चला जाता है, जबकि दु:ख का प्रभाव देर तक बना रहता है।
काव्य सौंदर्य: रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली , शैली: प्रतीकात्मक , छन्द : स्वच्छन्द ,अलंकार : अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: ओज, शब्द शक्ति लक्षणा
4.
अरे, वे अपलक चार नयन
आठ आँसू रोते निरुपाय,
उठे रोओं के आलिंगन
कसक उठते काँटों-से हाय!
किसी को सोने के सुख साज
मिल गया यदि ऋण भी कुछ आज,
चुका लेता दु:ख कल ही ब्याज
काल को नहीं किसी की लाज!
विपुल मणि रत्नों का छविजाल,
इन्द्रधनुष की सी जटा विशाल
विभव की विद्युत ज्वाल |
चमक, छिप जाती है तत्काल;
मोतियों जड़ी ओस की डार
हिला जाता चुपचाप बयार!
शब्दार्थ: अपलक-बिना पलक झपकाए, निर्निमेष; आठ आँसू रोते-दुःख में फूट-फूट कर रोना; निरुपाय-विवश, साधनहीन; रोओं-रोग समूहः । आलिंगन-गले लगाना; कसक-पीड़ा, सोने के सुख साज-सुख समृद्धि, ऋण-उधार, कर्ज; ब्याज-सूद; काल-समय; विपुल-प्रचुर, अत्यधिक छविजाल-सुन्दर जाल; जटा-उलझे। और आपस में चिपके हुए लम्बे बाल; विभव-वैभव, धन-सम्पत्ति विद्यत । ज्वाल-बिजली की ज्वाला; डार-डाली, शाखा; बयार-वायु, हवा।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: संसार के दु:ख का चित्रण करते हुए पन्त जी कहते हैं कि प्रिय की विरह-वेदना में पथराई आँखें बिना पलक झपकाए फूट-फूट कर रोया करती हैं। उन असहाय आँखों को दु:ख कम करने का कोई उपाय नहीं सूझता। वियोग के दौरान आने वाले दुःखों की कल्पना करके तथा स्वयं को असहाय जानकर व्यक्ति की दशा चिन्ताजनक हो जाती है। भय की आशंका से उसका रोम-रोम | इस प्रकार खड़ा हो जाता है, जैसे वे एक-दूसरे का आलिंगन करना चाहता हो। दुःखों से उसे इस प्रकार पीड़ा पहुँच रही है, मानो उसके शरीर में काँटे चुभो दिए गए हों। कवि पन्त जी कहते हैं कि सुख मानव का स्थायी साथी नहीं होता। यदि आज किसी को सुख-सुविधाओं के साधन उधार प्राप्त हो भी जाएँ तो समय का चक्र कल उसे इतना कमजोर और दुःखी बना देता है कि उसे प्राप्त सारे साधन ब्याज सहित चुकाने पड़ जाते हैं और उसकी दशा पहले से भी खराब हो जाती है। इस प्रकार यहाँ कवि ने समय को निर्लज्ज महाजन की तरह माना है। कवि कहते हैं कि मानव द्वारा असंख्य मणियों व रत्नों के रूप में संचित सम्पत्ति इन्द्रधनुष की तरह चकाचौंध करने वाली और अत्यन्त मोहक होती है, पर वह उसी क्षण भर में नष्ट हो जाने वाली भी है। जिस प्रकार बिजली की आग अपनी चमक बिखेर कर क्षण-भर में किसी अज्ञात संसार में विलुप्त हो जाता है, उसी प्रकार वैभव व सुख-सम्पत्ति का भी मानव-जीवन में क्षणिक प्रभाव रहता है।
काव्य सौंदर्य: रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली , शैली: प्रतीकात्मक , छन्द : स्वच्छन्द ,अलंकार : अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: ओज, शब्द शक्ति लक्षणा
5.
खोलता इधर जन्म लोचन
मूंदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण
अभी उत्सव औ हास हुलास
अभी अवसाद, अश्रु, उच्छवास!
अचरिता देख जगत् की आप
शून्य भरता समीर नि:श्वास,
डालता पातों पर चुपचाप
ओस के आँसू नीलाकाश,
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उहुगन!
शब्दार्थ: लोचन-आँख; औ-और; हास-हँसी हलास-उल्लासपूर्ण क्रियाएँ, आनन्द, अवसाद-दुःख; उच्छवास-दुःख की स्थिति में लम्बी-लम्बी साँसें। छोड़ना; अचरिता-क्षणिकता; जगत-संसार; समीर-हवा; पातों-पत्तों; उडगन-नक्षत्रमाला।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: संसार की परिवर्तनशीलता को स्पष्ट करते हुए पन्त जी कहते हैं कि इस मृत्युलोक में जन्म-मरण का चक्र सदा चलता रहता है। एक ओर कितने ही मानव धरती पर जन्म लेकर अपनी आँखों से संसार को देखते हैं, तो दूसरी ओर मृत्यु को प्राप्त होने वाले कितने ही लोग हमेशा के लिए अपनी आँखें मूंद कर इस लोक से विदा हो जाते हैं। इस प्रकार, एक ओर जन्म लेने पर हर्षोल्लास के साथ उत्सव मनाया जाता है, तो वहीं दूसरी ओर मृत्यु के शोक में आँसू बहाए जाते हैं। वास्तव में इस संसार का अद्भुत विधान है। अभी-अभी जहाँ आनन्द और उल्लास का साम्राज्य फैला था, अगले ही क्षण वहाँ दुःख बरबस आकर अपना प्रभाव जमा लेता है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे संसार की क्षणिकता देख पवन दःखी होकर आहे भरने लगी है। नीला आकाश से भी यह सब नहीं देखा जाता और वह व्यथित होकर अश्रुरूप में पेड़ की शाखा पर ओस की बूंदें टपकाने लगा है। सागर भी धीरज खोकर सिसकियाँ ले रहा है और ग्रह-तारे भी करुणा से परिपूर्ण उस दृश्य को देख काँप उठे हैं।
काव्य सौंदर्य: रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली , शैली: प्रतीकात्मक , छन्द : स्वच्छन्द ,अलंकार : अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: ओज, शब्द शक्ति लक्षणा
6.
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
अहे वासुकि सहस्रफन!
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षःस्थल पर!
शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अम्बर
मृत्यु तुम्हारा गरल दन्त, कंचुक कल्पान्तर
अखिल विश्व ही विवर,
वक्र-कुण्डल दिङ्मण्डल।
शब्दार्थ: निष्ठर-कठोर, निर्दयी; ताण्डव नर्तन-प्रलयकारी नृत्य; विवर्तन-परिवर्तन, फैलाव; नयनोन्मीलन-आँखें खोलना और बँद करना; निखिल-सम्पूर्ण; उत्थान-उन्नति; पतन-अवनति; वासकि-सर्प विशेष का नाम; सहस्रफन-हजार फन; लक्ष-लाख; अलक्षित-अदृश्य; चरण-पैर; विक्षत-घायल; वक्षः स्थल-छाती; शत-सौ; फेनोच्छवसित-फेन उगलते हुए; स्फीत-व्यापक; फत्कार-कुंकार; घनाकार -बादल के आकार का विशाल; अम्बर-आकाश; गरल दन्त-विष का दाँत; कंचुक-केंचुली; कल्पान्तर-दो कल्पों के मध्य का समय; विवर-छिद्र; वक्र कण्डल-गोल घेरा; दिङमण्डल-दिशाओं का घेरा।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहता है कि हे निष्ठुर परिवर्तन! जब तुम प्रलयकारी ताण्डव करते हो, तो उसके भँवर में फँसकर इस विश्व का करुण अन्त हो जाता है। इस संसार में जो उत्थान-पतन होते हैं, क्रान्तियाँ होती हैं, वे मानो तुम्हारे नेत्रों के खुलने और बन्द होने के साथ ही होती है अर्थात् तुम्हारे नेत्र खोलने पर उत्थान और बन्द करने पर पतन होता है। हे सहस्र फनों वाले वासुकि! तुम्हारे लाखों अदृश्य चरण इस संसार के घायल वक्षस्थल पर निरन्तर अपने चिह्न छोड़ते चलते हैं। तुम्हारे विष के झागों से भरी हुई और सारे विश्व को अपनी लपेट में ले लेने। वाली सैकड़ों भयंकर फुकारें इस संसार के मेघों के आकार से परिपूर्ण आकाश को निरन्तर घुमाती रहती हैं। हे परिवर्तनरूपी वासुकि! मृत्यु ही तुम्हारा जहरीला दाँत है, दो कल्पों के बीच का समय ही मानो तुम्हारी केंचुली है, यह समस्त संसार ही मानो तुम्हारे रहने की बाँबी (बिल) है और दिशाओं का घेरा ही माना तुम्हारी गोलाकार कुण्डली है।
काव्य सौंदर्य: रस: शान्त, भाषा: संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली , शैली: प्रतीकात्मक , छन्द : स्वच्छन्द ,अलंकार : अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं मानवीकरण , गुण: ओज, शब्द शक्ति लक्षणा
1.
तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन
हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल ।
हे चिर पुराण! हे चिर नवीन!
तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन,
आधार अमर, होगी जिस पर
भावी की संस्कृति समासीन।
शब्दार्थ: मांसहीन-जिसके शरीर पर मांस न हो; रक्तहीन खून की कमी का शिकार व्यक्तिः अस्थिशेष-जिसके शरीर पर सिर्फ हड्डियाँ ही शेष हों, काय व्यक्ति; बद्ध-प्रबुद्ध, ज्ञानी; चिर पुराण-परम्परागत संस्कृति के पाषक: चिर नवीन सदैव नई संस्कृति के प्रतीक, असार सारहीन, । तत्त्वरहित; भव-संसार; भावी-भविष्य की; समासीन पुनः प्रतिष्ठित
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: कवि पन्त जी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को नमन करते हुए कहते हैं। कि हे महात्मन! तुम्हारे शरीर में मांस और रक्त का अभाव है। तुम हड्डियों का ढाँचा मात्र हो। तुम्हें देख ऐसा आभास होता है कि तुम्हारा शरीर हड्डियों से रहित है। तुम पवित्रता एवं उत्तम ज्ञान से परिपूर्ण केवल आत्मा हो। हे प्राचीन संस्कृतियों के षोषक! हे नवीन संस्कृति के प्रतीक! तुम्हारे विचारों में प्राचीन व नवीन दोनों आदर्शों का सार विद्यमान है। हे आदर्श पुरुष! तुममें जीवन की सम्पूर्णता झलकती है, जिसमें विश्व की सम्पूर्ण असारता को समा लेने की क्षमता है। तुम्हारे ही आदर्शों से देश की संस्कृति का आधार परिलक्षित होगा और भविष्य की संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित करने में भी तुम्हारे ही जीवन के आदर्श महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे।
काव्य सौंदर्य:भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : गीतात्मक मुक्त शैली, अलंकार : विरोधाभास, यमक एवं रूपक , गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
2.
तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि
निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व त्याग
हे विश्व भोग का वर साधन;
इस भस्म-काम तन की रज से,
जग पूर्ण-काम नव जगजीवन,
बीनेगा सत्य-अहिंसा के
ताने-बानों से मानवपन!
शब्दार्थ: निर्मित बना हुआ; नवयुग-आधुनिक समय; नि:स्व-निःस्वार्थ; वर-श्रेष्ठ; भस्म-काम-कामनाओं को भस्म करे; तन शरीर; रज-धूल; ताना-बाना-कपड़े बुनने के क्रम में लम्बाई व चौड़ाई में प्रयोग किए जाने वाले धागे।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: पन्त जी कहते हैं कि हे बापू! तुम नवयुग के आदर्श हो, जिस प्रकार शरीर के निर्माण में मांस, रक्त और अस्थि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, उसी प्रकार नवयुग के निर्माण में तुम्हारे सआदर्शों का अमूल्य योगदान है। तुम धन्य हो। तुम्हारे द्वारा निःस्वार्थ भाव से किया गया सर्वस्व त्याग सम्पूर्ण जगत को कल्याण का मार्ग दिखाएगा। यह संसार तुम्हारे बताए हुए आदर्शों का अनुपालन करते हुए अपनी समस्त कामनाओं को भस्म कर उसकी राख से सत्य और अहिंसा के सिद्धान्त को आत्मसात करेगा, जिस प्रकार ताने और बाने के मेल से सुन्दर वस्त्र बुने जाते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा दिए गए सत्य और अहिंसा रूपी ताने-बाने से मानवता का सृजन होगा अर्थात् सम्पूर्ण मानव-जाति को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।
काव्य सौंदर्य:भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : गीतात्मक मुक्त शैली, अलंकार : विरोधाभास, यमक एवं रूपक , गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
3.
सुख भोग खोजने आते सब,
आए तुम करने सत्य-खोज
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज!
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर
चेतना, अहिंसा, नम्र ओज,
पशुता का पंकज बना दिया
तुमने मानवता का सरोज!
शब्दार्थ: पुतला-मिट्टी, कागज आदि से निर्मित आकृति, मनोज-कामदेव; जड़ता-मूर्खता; स्पर्धा-प्रतियोगिता; नम्र ओज-कोमल कान्ति; पंकज-कीचड़ में खिलने वाला कमल; सरोज-सरोवर में खिलने वाला कमल।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि पन्त जी कहते हैं कि हे बापू! प्रायः समस्त प्राणी पृथ्वी पर जन्म लेकर सुख की कामना करते हैं, परन्तु तुमने इस धरती पर सत्य की खोज करने के लिए अवतार लिया। मानव वस्तुतः मिट्टी से निर्मित एक पुतला ही तो होता है। वह मिट्टी से ही निर्मित होता है और मिट्टी में ही मिल जाता है। हे बापू! तुम भी मिट्टी के ही बने थे, परन्तु तुम्हारे मिट्टी से निर्मित शरीर में सत्य आत्मा निवास करती थी तथा तुम मन को प्रसन्न करने वाले कमल के समान थे। आपने मानव की अकर्मण्यता, हिंसा एवं प्रतिद्वन्द्विता को दूर करके उसमें ज्ञान, अहिंसा एवं आत्मिक शक्ति अर्थात् मानवीय सदगुणों को जाग्रत किया है। हे बापू! तुमने मानव-समाज में व्याप्त भेदभाव, जाति-भेद, हिंसा आदि कीचड़ में उत्पन्न कमल को सत्य, अहिंसा, त्याग एवं मानवतारूपी स्वच्छ सरोवर में उत्पन्न कमल के समान बना दिया।
काव्य सौंदर्य:भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : गीतात्मक मुक्त शैली, अलंकार : विरोधाभास, यमक एवं रूपक , गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
4.
पशु-बल की कारा से जग को
दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,
विद्वेष घृणा से लड़ने को
सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति,
वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ
तुमने विचार परिणीत उक्ति
विश्वानुरक्त हे अनासक्त,
सर्वस्व-त्याग को बना मुक्ति!
शब्दार्थ: कारा-बन्दीगृह, जेल विमुक्ति-मुक्ति, मोक्ष: विद्वेष-द्वेष, इर्ष्या , दुर्जय-जिसे आसानी से जीता न जा सकेयुक्ति-उपाय, श्रम-प्रसूति-परिश्रम के द्वारा उत्पन्न विचार; कतार्थ-कृतकृत्यःपरिणीत-परिवर्तित; विश्वानुरक्त- संसार से प्रेम रखने वाला; अनासक्त-आसक्तिरहित; सर्वस्व-सम्पूर्ण।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: पन्त जी राष्ट्रपिता का गुणगान करते हुए कहते हैं कि हे बापू! जब सम्पूर्ण मानव समुदाय पाश्विक शक्ति के कारागृह में कैद होकर बाहि-त्राहि पुकार रहा था, तब तुमने सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए उसे आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखाया। प्रेम से घृणा, द्वेष जैसे अवगुणों को जीतने का ऐसा मन्त्र दिया जो कभी निष्फल नहीं जाता। तुमने केवल कहे गए शब्दों के द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्त न कर उन्हें परिश्रम और। तप के बल पर अपने आचरण में उतारा अर्थात् तुम कथनों की अपेक्षा कर्म के द्वारा सन्देश देने को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। आसक्ति से विरक्त रहने वाले और विश्व के प्रति सदा अनुराग रखने वाले हे बापू! तुमने सर्वस्व त्याग करके मुक्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर ली है।
काव्य सौंदर्य:भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : गीतात्मक मुक्त शैली, अलंकार : विरोधाभास, यमक एवं रूपक , गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
5.
उर के चरखे में कात सूक्ष्म,
युग-युग का विषय-जनित विषाद
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रँग-रँग खद्दर के सूत्रों में,
नव जीवन आशा, स्पृहाह्लाद,
मानवी कला के सूत्रधार।
हर लिया यन्त्र कौशल प्रवाद!
शब्दार्थ: उर-हृदय; विषय-जनित-वासना से उत्पन्न; विषाद-दुःख, वेदना; गगन-आकाश; निनाद-संगीतमय गूंज; खद्दर-खादी; स्पृहाह्लाद-इच्छा और प्रफुल्लता; मानवी-मनुष्य की; सूत्रधार-निर्माता; हर लिया-दूर कर दिया; प्रवाद-चुनौती।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: कवि गाँधीजी के प्रति श्रद्धा भाव दर्शाते हुए कहते हैं कि हे बापू! तुमने चरखे को महत्त्व देकर न केवल लोगों को भौतिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु कर्म में जुड़े रहने की सीख दी, बल्कि अपने हृदयरूपी चरखे के माध्यम से युग-युग से मानव-हृदय में व्याप्त वासनाजन्य विकारों को दूर करने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया। तुमने चरखा आन्दोलन के साथ-साथ सत्य और अहिंसा की पवित्र गँज से उत्पन्न आत्मिक संगीत के द्वारा सम्पूर्ण धरती और आकाश को गुंजायमान कर दिया। खादी के वस्त्रों पर रंग चढ़ाने के साथ-साथ खादी को जन-जन से जोड़कर लोगों के जीवन में आशाओं और उल्लास का रंग भर दिया। इस प्रकार तुम्हारे माध्यम से एक नई मानवीय कला का सूत्रपात किया गया। हे बापू! चरखा के माध्यम । से एक ओर तो तुमने वासनाजन्य पीड़ाओं से छुटकारा दिलाया तो दूसरी ओर मशीनीकरण को चुनौती देकर लोगों को कर्म में रत रहने का सन्देश भी दिया।
काव्य सौंदर्य:भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : गीतात्मक मुक्त शैली, अलंकार : विरोधाभास, यमक एवं रूपक , गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
6.
साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी
मानवता, पशु-बलाऽक्रान्त,
श्रृंखला-दासता, प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त,
कारागृह में दे दिव्य जन्म
मानव आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना
तुमने की नत, पद-प्रणत शान्त!
शब्दार्थ: बन्दिनी-कैद, पशु-बलाऽक्रान्त-पाश्विक शक्ति से पीडितः । दासता-परतन्त्रता: प्रहरी-पहरेदार: निर्मम-निर्दयी: भ्रान्त-भ्रम में पड़ा हुआ; दिव्य-विराट, अलौकिक, कान्त-सुन्दर; जन-शोषण-जनता पर । किया जाने वाला अत्याचार; नत-नीचा; प्रणत-विनीत, झुकी हुई।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: पन्त राष्ट्रपिता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे बापू! जिस प्रकार कंस के शासन के दौरान मानवता पर घोर अत्याचार किया जाता था, मानो वह बन्दीगृह में कैद हो. उसी प्रकार अंग्रेजी साम्राज्यवाद में । भी भारतीयों के साथ तरह-तरह के अत्याचार किए जाते थे। यहाँ की जनता । विदेशी पाश्विक शक्तियों से पीड़ित थी। जिस प्रकार, कंस के साम्राज्य में पद और शक्ति के मद में भ्रमित क्रूर अधिकारीगण जेल के पहरेदार बनाए गए थे। बावजूद इसके देवकी ने बन्दीगृह में श्रीकृष्ण को जन्म देकर मथुरावासियों को कंस के अत्याचारों से मुक्त कराया, उसी प्रकार हे बापू! तुमने भी कई बार कारागार में जाकर मानवता का उद्धार किया। भारत के निवासियों का शोषण करने वाली अंग्रेजी साम्राज्य रूपी यमना को सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर अपने चरणों में झुकने के लिए विवश कर दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने चरणों के स्पर्श से भयानक रूप धारण कर यमुना को शान्त और वश में। किया था, उसी प्रकार महात्मा गाँधी के समक्ष अत्याचार और शोषण का प्रतीक बनी अंग्रेजी शासन व्यवस्था को झुकना पड़ा था। गाँधीजी के अहिंसात्मक विरोध के सामने उसकी एक न चली थी और अन्ततः बापू के। प्रयासों से अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ा; तत्पश्चात् हमारा देश स्वतन्त्र हुआ।
काव्य सौंदर्य:भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : गीतात्मक मुक्त शैली, अलंकार : विरोधाभास, यमक एवं रूपक , गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
7.
कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति
बहु धर्म-जाति-गति रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू विभक्त
विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम;
आये तुम मुक्त पुरुष, कहने-
मिथ्या जड़ बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं मा भैः,
जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!
शब्दार्थ: कारा-कैद, बन्दी; विगत-पिछली, बीती हुई, भित्ति-दीवार; भू-धरती. भूमि; विभक्त-बँटी हुई; मूढ़-विवेकहीन, जड़बुद्धि प्रकृति-काम-प्रकृति का इच्छानुसार संचालन; मिथ्या-झूठा, व्यर्थ; जड़ बन्धन-सांसारिक सम्बन्धः । नानृतं-असत्य, झूठ, जयति-जीत, विजय; मा-मत; भैः-भयभीत।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘बापू के प्रति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि पन्त जी कहते हैं कि हे बाप! भारतीय संस्कृति विगत कई वर्षों से परतन्त्र थी, कैद थी। यहाँ के लोग धर्म, जाति, अर्थ, शिक्षा, रूप, ख्याति आदि बहुत से बन्धनों में जकड़े हुए थे अर्थात् यहाँ का सामान्य जन-जीवन ही कैद था। यहाँ की धरती क्षेत्रीयता, भाषावाद जैसे कई आधारों पर बँटी हुई थी। विज्ञान के प्रभाव में आकर यहाँ के लोग अविवेक हो प्रकृति का उपभोग अपनी इच्छा के अनुरूप करना चाहते थे। किन्तु लम्बे समय से गुलामी का दंश झेलने वाले भारतीयों के लिए उद्धारक (बन्धनमुक्त कराने वाले) बनकर आने वाले हे बाप! तमने जन-जन में यह सन्देश भी फैलाया है कि सांसारिक सम्बन्ध अर्थात् रिश्ते-नाते सब झूठे और दिखावे वाले हैं। ईश्वर का नाम ही एकमात्र सत्य और शाश्वत है। असत्य की नहीं, वरन् सर्वदा सत्य की ही जीत होती है। अतः डर को त्याग दो। ज्ञान की ऐसी दिव्य ज्योति जगाने वाले युग पुरुष बापू! तुम्हें प्रणाम!
काव्य सौंदर्य:भाषा: संस्कृतनिष्ठ, शद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, शैली : गीतात्मक मुक्त शैली, अलंकार : विरोधाभास, यमक एवं रूपक , गुण : प्रसाद, शब्द शक्ति : अभिधा एवं लक्षणा
( पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)
प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।
प्रश्न 1. शान्त, स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनन्त नीरव भूतल!
सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल,
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस-बाला गंगा निर्मल, शशिमुख से दीपित मृदु करतल,
लहरें उर पर कोमल कुन्तल!
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलाम्बर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर!
01 प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से उद्धत है तथा इसके कवि कौन हैं?
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश ‘नौका-विहार’ कविता से उद्धृत है तथा इसके कवि प्रकृति के सुकुमार ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ हैं।
02 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किसका उल्लेख किया है?
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने चाँदनी रात में किए गए नौका-विहार का चित्रण किया है। इसमें कवि ने गंगा की कल्पना का उल्लेख नायिका के रूप में किया
03 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपने आसपास कैसे वातावरण का वर्णन किया ?
उत्तर: कवि के अनुसार चारों ओर शान्त, तरल एवं उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई है। आकाश टकटकी बाँधे पृथ्वी को देख रहा है। पृथ्वी अत्यधिक शान्त एवं शब्दरहित है। ऐसे मनोहर एवं शान्त वातावरण में क्षीण धार वाली गंगा बालू के बीच मन्द-मन्द बह रही है।
04 गंगा बालू के बीच बहती हुई कैसी प्रतीत हो रही है?
उत्तर: गंगा बालू के बीच बहती हुई ऐसी प्रतीत हो रही है मानो कोई छरहरे, दुबले-पतले शरीर वाली सुन्दर युवती दूध जैसी सफेद शैया पर गर्मी से व्याकुल होकर थकी, मुरझाई एवं शान्त लेटी हुई हो।
05 नीलाम्बर’ का समास विग्रह करते हए भेद बताएँ।
उत्तर: नीलाम्बर-नीला है, जो अम्बर (कर्मधारय समास)।
प्रश्न 2. कहाँ आज वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगन्त छवि जाल,
ज्योति चुम्बित जगती का भाल?
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार? |
स्वर्ग की सुषमा जब साभार।
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत श्रृंगार,
(स्वर्ण भृंगों के गन्ध विहार)
गूंज उठते थे बारम्बार
सृष्टि के प्रथमोद्गार।
नग्न सुन्दरता थी सुकुमार
ऋद्धि औं सिद्धि अपार।
अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दुःख दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण भ्रू-पात।
01 प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से अवतरित है तथा इसके रचयिता कौन हैं?
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश ‘परिवर्तन’ नामक कविता से अवतरित है तथा इसके रचयिता प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त’ जी हैं।
02 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने किस ओर संकेत किया है?
उत्तर: कवि ने भारतवर्ष के वैभवपूर्ण और समृद्ध अतीत का उल्लेख करते हुए समय के साथ-साथ देश की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तनों की ओर संकेत किया है।
03 कवि ने अतीत के वैभवपूर्ण व समृद्धशाली भारत की तुलना वर्तमान से किस प्रकार की है?
उत्तर: कवि के अनुसार आज हमारी समृद्धि और ऐश्वर्य विलुप्त हो चुके हैं, जो हमारे स्वर्णिम अतीत की पहचान थी। कभी हमारा देश सोने की चिड़िया कहलाता था, आज वह स्वर्ण युग विलुप्त सा हो गया है। इस प्रकार हमारे देश से ज्ञान, हरियाली इत्यादि भी समय-समय पर कम होती जा रही है।
04 कवि ने स्वर्णिम भारत का चित्रण किस रूप में किया है?
उत्तर: स्वर्णिम भारत में धरती के चारों ओर छाया हुआ सौन्दर्य उन्मुक्त और सुकुमार था। धरती अपूर्व वैभव और सुख-समृद्धि से पूर्ण थी। सचमुच वह वैभवशाली युग विश्व के स्वर्णिम स्वप्न का युग था। वह युग सृष्टि के प्रथम प्रभाव के समान आशा, उल्लास, सौन्दर्य व जीवन से परिपूर्ण था।
05“विश्व का स्वर्ण स्वप्न संसृति का प्रथम प्रभात’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर: इस पंक्ति में स्वर्ण स्वप्न संसृति में रूपक तथा सम्पूर्ण वाक्य में ‘स’ और ‘प्र’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है।
प्रश्न 3. तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन
हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल
हे चिर पुराण! हे चिर नवीन!
तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन,
आधार अमर, होगी जिस पर
भावी की संस्कृति समासीन।
तम मांस. तम्हीं हो रक्त-अस्थि
निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व त्याग
हे विश्व भोग का वर साधन;
इस भस्म-काम तन की रज से,
जग पूर्ण-काम नव जगजीवन,
बीनेगा सत्य-अहिंसा के
ताने-बानों से मानवपन!
01 प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से अवतरित है तथा इसके रचयिता कौन हैं?
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश ‘बापू के प्रति’ नामक कविता से अवतरित है तथा इसके। रचयिता प्रकृति के सुकुमार कवि ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ जी हैं।
02 प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने किस ओर संकेत किया है?
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के आदर्शों को भारतीय संस्कृति का वाहक बताया है तथा कवि ने गाँधी जी को सत्य और अहिंसा की प्रतिमूर्ति मानकर उनके बताए गए आदर्शों पर चलने की कामना व्यक्त की है।
03 कवि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को नमन करते हुए क्या कह रहे हैं?
उत्तर: कवि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को नमन करते हुए कहते हैं कि हे महात्मन! तुम्हारे शरीर में मांस और रक्त का अभाव है। तुम हड्डियों का ढाँचा मात्र हो। तुम्हें देख ऐसा आभास होता है कि तुम पवित्रता एवं उत्तम ज्ञान से परिपूर्ण केवल आत्मा हो। हे प्राचीन संस्कृतियों के पोषक! तुम्हारे विचारों में प्राचीन व नवीन दोनों आदर्शों का सार विद्यमान है।
04 प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने राष्ट्रपिता को नवयुग के रूप में किस प्रकार प्रस्तुत किया है?
उत्तर: कवि राष्ट्रपिता को नवयुग के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि हे बापू! तुम नवयुग के आदर्श हो, जिस प्रकार शरीर के निर्माण में मांस, रक्त और. अस्थि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, उसी प्रकार नवयुग के निर्माण में तुम्हारे सद्आदर्शों का अमूल्य योगदान है।
05‘तन’ शब्द के चार पर्याय लिखिए।
उत्तर: देह, अंग, काया, गात तन के चार पर्यायवाची शब्द हैं।
कृपया अपना स्नेह बनाये रखें ।
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