पाठ 5 :गीत/श्रद्धा-मनु

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जयशंकर प्रसाद जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ


प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय

छायावाद के प्रवर्तक एवं उन्नायक महाकवि जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के अत्यन्त प्रतिष्ठित सुँघनी साहू के वैश्य परिवार में 1889 ई. में हुआ था। इनके दादा जी का नाम शिवरत्न साहू और पिताजी का नाम देवी प्रसाद साहू था। माता-पिता एवं बड़े भाई के देहावसान के कारण अल्पायु में ही प्रसाद जी को व्यवसाय एवं परिवार के समस्त उत्तरदायित्वों को वहन करना पड़ा। घर पर ही अंग्रेजी, हिन्दी, बांग्ला, उर्दू, फारसी, संस्कृत आदि भाषाओं का गहन अध्ययन किया। तत्पश्चात् इन्होंने बनारस के ‘क्वीन्स कॉलेज में दाखिला लेकर मात्र आठवीं तक की शिक्षा प्राप्त की। अपने पैतृक कार्य को करते हुए भी इन्होंने अपने भीतर काव्य-प्रेरणा को जीवित रखा। अपने उत्कृष्ट लेखन के लिए इन्हें अपनी रचना ‘कामायनी’ पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया। अत्यधिक विषम परिस्थितियों को जीवटता के साथ झेलते हुए यह युग-स्रष्टा साहित्यकार हिन्दी के मन्दिर में अपूर्व रचना-सुमन अर्पित करता हुआ 15 नवम्बर, 1937 को काशी में निष्प्राण हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ:- जयशंकर प्रसाद के काव्य में प्रेम और सौन्दर्य प्रमुख विषय रहा है। साथ ही उनका दृष्टिकोण मानवतावादी है। प्रसाद जी सर्वतोन्मुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। प्रसाद जी ने कुल 67 रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। ये ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के उपाध्यक्ष भी थे।

कृतियाँ:- इनकी प्रमुख काव्य कृतियों में चित्राधार, प्रेमपथिक, कानन-कुसुम, झरना, आँसू, लहर, कामायनी आदि शामिल हैं।
चार प्रबन्धात्मक कविताएँ : शेरसिंह का शस्त्र समर्पण, पेशोला की प्रतिध्वनि, प्रलय की छाया तथा अशोक की चिन्ता अत्यन्त चर्चित रहीं।
नाटक: चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जनमेजय का नागयज्ञ, राज्यश्री, अजातशत्र, प्रायश्चित आदि।
उपन्यास: कंकाल, तितली एवं इरावती (अपूर्ण रचना)
कहानी संग्रह: प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी आदि।
निबन्ध संग्रह: काव्य और कला



(प्रथम भाग: गीत) पद्यांशों की सन्दर्भ सहित हिन्दी में व्याख्या:


1.

बीती विभावरी जाग री।
अम्बर-पनघट में डुबो रही-
तारा-घट ऊषा नागरी।
खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई-
मधु-मुकुल नवल रस-गागरी।
अधरों में राग अमन्द पिए,
अलकों में मलयज बन्द किए-
तू अब तक सोई है आली!
आँखों में भरे विहाग री।

शब्दार्थ:विभावरी-रात; अम्बर-आकाश, पनघट-कुआँ घट-घड़ा; ऊषा-सवेरा; नागरी-नायिका, महिला; खग-कुल-पक्षियों का समूहः कुल-कुल-पक्षियों का कलरव किसलय-नया पत्ता; अंचल-आँचल; लतिका-लता, बेल; मधु-मकरन्द रस; मुकुल-कली नवल-नया; अधर-होठ; अमन्द-तीव्र, अधिक, अलक-केश, बाल; मलयज- मलय पर्वत से आने वाली सुगन्धित पवन; आली-सखी: विहाग-रात्रि के अन्तिम प्रहर में गाया जाने वाला एक राग

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘गीत’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: इस पद्यांश में एक सखी दसरी सखी से कहती है, हे सखी! रात बीत गई है, अब तो तुम जागो। गगनरूपी पनघट में उषारूपी नायिका तारारूपी घड़े को डुबो रही है अर्थात् समस्त नक्षत्र प्रभात के आगमन के कारण आकाश में लीन हो गए हैं। प्रातःकाल के आगमन पर पक्षियों के समूह कलरव कर रहे हैं। शीतल मन्द सुगन्धित हवा चलने से पल्लवों के आँचल हिलने लगे हैं। लताएँ भी नवीन परागरूपी रस से युक्त गागर को भर लाई है। (समस्त कलियाँ पुष्पों में परिवर्तित होकर पराग से युक्त हो गई हैं); परन्तु हे सखी! तू अपने अधरों में प्रेम की मदिरा को पिए हए, अपने बालों में सुगन्ध को समाए हुए तथा आँखों में आलस्य भरे हुए सो रही है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि प्रातःकाल होने पर सर्वत्र जागरण हो गया है और तू अभी तक सोई है ?

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: गीति, छन्द: गीत, अलंकार: रूपक, अनुप्रास, उपमा, मानवीकरण, पुनरुक्तिप्रकाश एवं यमक, गुण: माधुर्य , शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा




(द्वितीय भाग: श्रद्धा-मनु ) पद्यांशों की सन्दर्भ सहित हिन्दी में व्याख्या:


1.

‘कौन तुम! संसृति-जलनिधि तीर
तरंगों से फेंकी मणि एक;
कर रहे निर्जन का चुपचाप
‘प्रभा की धारा से अभिषेक?
मधुर विश्रान्त और एकान्त
जगत् का सुलझा हुआ रहस्य;
एक करुणामय सुन्दर मौन
और चंचल मन का आलस्य!

शब्दार्थ:संसृति-जलनिधि-संसाररूपी सागर, भवसागर, तीर-तट, किनारा; मणि-एक रत्न, निर्जन-सुनसान, शून्य; प्रभा-कान्ति; अभिषेक-तिलक, स्नान; विश्रान्त-थका हुआ; जगत -संसार।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या:श्रद्धा, मनु से प्रश्न करती है कि तुम कौन हो? जिस प्रकार सागर की लहरें अपनी तरंगों से मणियों को अपने किनारे पर फेंक देती हैं. उसी प्रकार संसाररूपी सागर की लहरों द्वारा इस निर्जन स्थान में फेंके हुए। तम कौन हो? तुम चुपचाप बैठकर इस निर्जन स्थान को अपनी आभा से उसी प्रकार सशोभित कर रहे हो, जैसे सागर तट पर पड़ी हुई मणि उसके निर्जन तट को आलोकित करती है। श्रद्धा कहती है कि हे अपरिचित! तुम मुझे मधरता. नीरवता से परिपूर्ण इस संसार में सुलझे हुए रहस्य की भाँति प्रतीत हो रहे हो। अपरिचित होने के कारण तुम रहस्यमय हो, फिर भी तुम्हारे मुख के। भाव तुम्हारे रहस्य को सुलझा रहे हैं। तुम्हारा सुन्दर और मौन रूप करुणा से परिपूर्ण है और तुम्हारे चंचल मन ने आलस्य धारण कर लिया है।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



2.

सुना यह मनु ने मधु गुंजार
मधुकरी का-सा जब सानन्द,
किए मुख नीचा कमल समान
प्रथम कवि का ज्यों सुन्दर छन्द।
एक झटका-सा लगा सहर्ष,
निरखने लगे लुटे-से, कौन
गा रहा यह सुन्दर संगीत?
कुतूहल रह न सका फिर मौन।

शब्दार्थ:मधु-मधुर, मीठा; गुंजार -गूंज; मधुकरी-भ्रमरी; सानन्द-आनन्द सहित; प्रथम कवि-आदिकवि, वाल्मीकि; झटका-धक्का, झोंका; सहर्ष-खुशी के साथ; निखरना-सँवरना; कृतहल-जिज्ञासा।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: मनु और श्रद्धा की प्रथम भेंट होने पर जब श्रद्धा उससे उसका परिचय पूछती है तो उसकी आवाज उन्हें भौंरों के मधुर गुंजार के समान आनन्ददायक प्रतीत होती है। अपरिचित मनु का परिचय पूछने के क्रम में श्रद्धा लज्जावश अपना सिर नीचे झुकाए रहती है जिसे देख मनु को ऐसा आभास होता है, जैसे कोई खिला हुआ कमल पृथ्वी की ओर झुका हो। मनु को कमल सदृश सुन्दर दिखने वाले उसके मुख से निकले मधुर बोल आदि कवि के सुन्दर छन्द-से प्रतीत होते हैं। उस निर्जन स्थान पर जहाँ किसी के होने की कोई सम्भावना न थी, श्रद्धा जैसी अनुपम रूपवती को देखकर मनु आश्चर्यचकित हो उठते हैं और उनका मलिन मुख निखर उठता है। श्रद्धा के कण्ठ से निकले गीत सदृश बोल का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह उससे बोले बिना नहीं रह पाते और उसके विषय में सब कुछ जान लेना चाहते हैं।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



3.

और देखा वह सुन्दर दृश्य
नयन का इन्द्रजाल अभिराम।
कुसुम-वैभव में लता समान
चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम।
हृदय की अनुकृति बाह्य उदार
एक लम्बी काया, उन्मुक्त।
मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल
सुशोभित हो सौरभ संयुक्त।
मसृण गान्धार देश के, नील
रोम वाले मेषों के चर्म,
ढक रहे थे उसका वपु कान्त
बन रहा था वह कोमल वर्म।

शब्दार्थ:इन्द्रजाल जादू: अभिराम सुन्दर, अनोखा; कुसुम वैभव पुष्षों का ऐश्वर्य; चन्द्रिका चाँदनी; घनश्याम काला बादल; अनुकति प्रतिकृति, नकल; बाह्य बाहर; काया शरीर; उन्मुक्त स्वतन्त्र, मधु पवन वसन्त में बहने वाली सुगन्धित हवा; क्रीडित खेलता हुआ; शिशु साल साल का छोटा-सा वृक्ष; सौरभ संयक्त-सुगन्ध से युक्त, मसृण-कोमल, चिकना; रोम-रोआँ: मेष-भेंड़, चर्म-चमड़ा; वपु कान्त सुन्दर शरीर; वर्म-कवच।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा की समधुर ध्वनियों को सुनने के पश्चात जब मन का ध्यान उसके रूप की ओर गया तब वह दृश्य उनकी आँखों को जादू के समान सुन्दर और मोहक लगा। श्रद्धा फलों से परिपूर्ण लता के समान सुन्दर और शीतल चाँदनी में लिपटे हुए बादल-सी आकर्षक प्रतीत हो रही थी। उसका हृदय उदार और विस्तृत था। वह लम्बे कद की उन्मुक्त युवती थी। लम्बे और सुन्दर दिखने वाले शरीर में वह ऐसे शोभायमान थी मानो वसन्त की बयार अर्थात् वसन्ती हवा में झूमता हुआ साल का कोई छोटा-सा वृक्ष सुगन्ध से सराबोर होकर चारों ओर अपनी शोभा बिखेर रहा हो। श्रद्धा के वस्त्र गन्धार देश में पाई जाने वाली नीले बालों की भेड़ों की खाल से बने थे। अत्यन्त कोमल होते हए भी वे वस्त्र न केवल उसके सुन्दर तन को ढक रहे थे, बल्कि कवच के समान शरीर की रक्षा भी कर रहे थे। कहने का तात्पर्य है कि श्रद्धा उन वस्त्रों में सुन्दर और सुरक्षित दिख रही थी।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



4.

नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघ-वन बीच गुलाबी रंग।
आह! वह मुख! पश्चिम के व्योम-
बीच जब घिरते हों घन श्याम;
अरुण रवि मण्डल उनको भेद
दिखाई देता हो छविधाम!

शब्दार्थ:नील नीला; परिधान वस्त्र, सुकमार अति कोमल, मृदुल कोमल; मेघ-बन बादलों का समूह; व्योम आकाश; अरुण लाल, रवि सूर्य; छविधाम सौन्दर्य का भण्डार

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: मनु के भावों की अभिव्यक्ति करते हुए प्रसाद जी लिखते हैं कि श्रद्धा भेड़-चर्म के बने नीले वस्त्र में अत्यन्त आकर्षक दिख रही है। वस्त्रों के मध्य कहीं-कहीं से दिखाई दे रहे उसके कोमल अंग ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे वे नीले बादलों के समूह में चमकती हुई बिजली के गुलाबी-गुलाबी फूल हों। नीले वस्त्र के मध्य श्रद्धा के लालिमायुक्त तेज मुख को देख ऐसा आभास होता है, मानो साँझ के समय काले बादलों को भेदकर चारों ओर लाल किरणें बिखेरता सूर्य शोभायमान हो।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



5.

घिर रहे थे धुंघराले बाल
अंश अवलम्बित मुख के पास;
नील घन-शावक-से सुकुमार
सुधा भरने को विधु के पास।
और उस मुख पर वह मुसक्यान
रक्त किसलय पर ले विश्राम;
अरुण की एक किरण अम्लान
अधिक अलसाई हो अभिराम।

शब्दार्थ:अंश कन्धा; अवलम्बित आश्रित; घन-शावक शिशु बादल; सुधा अमृत; विधु-चन्द्रमा; रक्त किसलय लाल कोपलें; अम्लान उज्ज्वल; अलसाई आलस्य से पूर्ण)

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा के केश सुन्दर और घुघराले थे। वे उसके चेहरे से होकर कन्धों पर ऐसे झूल रहे थे मानो अमृत पान हेतु नन्हें बादल सागर तल को स्पर्श करने की कोशिश कर रहे हों। उसके सुन्दर मुख पर बिखरी हुई मुसकान को देख ऐसा आभास हो रहा था, जैसे सूर्य की कोई अलसाई-सी उज्ज्वल किरण लाल नवीन कोपल पर विश्राम कर रही हो।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



6.

कहा मनु ने, “नभ धरणी बीच
बना जीवन रहस्य निरुपाय;
एक उल्का-सा जलता भ्रान्त
शून्य में फिरता हूँ असहाय।”
“कौन हो तुम वसन्त के दूत
बिरस पतझड़ में अति सुकुमार;
घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मन्द बयार!”

शब्दार्थ:नभ-आकाश; धरणी-धरती, पृथ्वी; निरुपाय-बिना उपाय के; उल्का-टूटा हुआ तारा; भ्रान्त-भटकने वाला; शून्य-निर्जन स्थान, आकाश; दूत-सन्देशवाहक; बिरस-नीरस, उजाड़; घन-बादल; तिमिर-अन्धकार: चपला-बिजली; तपन-ताप; मन्द-धीमी, मधुर; बयार-वायु।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा की जिज्ञासा को शान्त करने के उददेश्य से मनु अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि इस पृथ्वी और आकाश के मध्य भटकता हुआ मेरा जीवन रहस्य बन गया है, किन्तु मैं इसी स्थिति में जीने के लिए विवश हूँ। मुझे इससे उबरने का कोई मार्ग नहीं सूझता। जिस प्रकार एक उल्का शून्य में यूँ ही भटकता फिरता है, उसी प्रकार मैं भी इस धरती पर तरह-तरह की मुसीबतों को झेलता हुआ असहाय और अकेला भटक रहा हूँ। तत्पश्चात् मनु श्रद्धा से पूछते हैं कि इतनी सुकुमार दिखने वाली तुम कौन हो? जिस प्रकार पतझड़ के बाद वसन्त के आगमन से चारों ओर हरियाली छाने लगती है, उसी प्रकार मेरे नीरस एवं समस्याओं से ग्रस्त इस जीवन में तुम्हारे आगमन से नई आशाओं का संचार हुआ है। तुम काले बादलों के मध्य घनघोर अन्धकार में बिजली की चमक बनकर आई हो और प्रचण्ड गर्मी में शीतलता प्रदान करने वाली धीमी-धीमी बहने वाली हवा की तरह सुखदायक हो अर्थात् तुम दुःख एवं सन्ताप से भरे मेरे इस गतिहीन और सूने जीवन में नव-चेतना भरने वाली हो।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



7.

लगा कहने आगन्तुक व्यक्ति
मिटाता उत्कण्ठा सविशेष,
दे रहा हो कोकिल सानन्द
सुमन को ज्यों मधुमय सन्देश-
भरा था मन में नव उत्साह
सीख लूँ ललित कला का ज्ञान;
इधर रह गन्धर्वो के देश
पिता की हूँ प्यारी सन्तान।

शब्दार्थ:आगन्तुक-आया हुआ; उत्कण्ठा-उत्सुकता; सविशेष-तीव्र, प्रबल; कोकिल-कोयल; सुमन-पुष्प; मधुमय-मधुर; ललित कला-चित्रकारी, पेन्टिंग, संगीत आदि कलाएँ; गन्धर्व-संगीत में पारंगत एक देव जाति।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा को देख मनु के मन में यह जानने की तीव्र आकांक्षा होती है। कि आखिर वह है कौन? मनु की आकांक्षा को शान्त करती हई श्रद्धा नाम की वह आगन्तुक मीठी वाणी में अपना परिचय देती है। उस समय अमृत रस टपकाती हुई उसकी आवाज ऐसी प्रतीत हो रही थी, जैसे कोयल अति प्रसन्नता। के साथ अपनी सुमधुर ध्वनि में पुष्पों को ऋतुराज अर्थात् वसन्त के आगमन का सन्देश सुना रही हो। श्रद्धा मनु से कहती है कि मैं अपने पिता की अत्यन्त प्रिय सन्तान हूँ। मेरा। मन नवीन उत्साह से परिपूर्ण था। मेरी प्रबल इच्छा थी कि मैं ललित कलाएँ। सीखू। इसी उद्देश्य से इन दिनों मैं गन्धर्व देश में निवास कर रही हूँ।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



8.

दृष्टि जब जाती हिम-गिरि ओर
प्रश्न करता मन अधिक अधीर;
धरा की यह सिकुड़न भयभीत
आह कैसी है? क्या है पीर?
बढ़ा मन और चले ये पैर
शैल मालाओं का श्रृंगार;
आँख की भूख मिटी यह देख
आह कितना सुन्दर सम्भार।

शब्दार्थ:हिम-गिरि-हिमालय, अधीर-धैर्यहीन धरा-धरती पीर-पीड़ा: शैल। माला-पर्वत श्रृंखला; सम्भार-सम्पत्ति, सम्पूर्णता।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा कहती है कि मेरी दृष्टि जब हिमालय की ओर जाती है, तब मेरे मन में न जाने कितने ही तरह के प्रश्न उठने लगते हैं और मैं उनके । उत्तर जानने के लिए बेचैन हो उठती हूँ। इतने विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई धरती की सिकुड़न के रूप में इस पर्वत श्रृंखला का वास्तविक स्वरूप क्या है? इसकी। आह कैसी है? इसकी पीड़ा कितनी गहरी है? अर्थात् इन दुर्गम स्थलों पर रहने वाले लोगों का जीवन कितना कष्टप्रद और चुनौतियों से भरा है। ऐसे । कितने ही प्रश्न मेरे मन को व्याकुल कर देते हैं। श्रद्धा अपनी बात को आगे बढ़ाती हई कहती है कि इन प्रश्नों का कोई समाधान न मिलने पर मेरा मन हिमालय के दर्शन को व्याकुल हो उठा और मेरे कदम उस ओर चल पड़े। हिमाच्छादित गगनचुम्बी पर्वत-चोटियों और चारों ओर फैले ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे वृक्षों के समूहों को देखकर मेरी आँखों की भूख शान्त हो गई। सचमुच सौन्दर्य सम्पन्नता का कितना अद्भुत दृश्य है यह पर्वत श्रृंखला।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



9.

यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न
भूत-हित-रत किसका यह दान!
इधर कोई है अभी सजीव,
हुआ ऐसा मन में अनुमान।
तपस्वी! क्यों इतने हो क्लान्त,
वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश
बताओ यह कैसा उद्वेग?

शब्दार्थ: बलि का अन्न-वह अन्न जो जीवों के कल्याणार्थ गृहस्थों द्वारा प्रतिदिन घर से बाहर रख दिया जाता है। भूत-हित-रत-जीवों की भलाई में लीन; क्लान्त-थका हुआ, दुःखी; वेदना-दर्द, वेग-तीव्रता; हताश-निराश; | उद्वेग- घबराहट, चिन्ता।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा मन से कहती है कि विराट हिमालय के दर्शन करने के दौरान इस स्थान पर पहुँचने पर जब मेरी दृष्टि सभी जीव-जन्तुओं के भरण-पोषण हेत प्रतिदिन अपने भोजन में से गृहस्थों द्वारा निकाले गए अन्न के हिस्से पर पड़ी तो मैंने सोचा कि यहाँ पर निश्चय ही कोई व्यक्ति निवास कर रहा है, अन्यथा इस वीरान क्षेत्र में दान का अन्न कहाँ से आता। मुझे इस विश्वास ने ही तम तक पहुँचा दिया कि इस निर्जन क्षेत्र में कोई जीवित व्यक्ति। अवश्य विद्यमान है। तत्पश्चात् श्रद्धा मनु से पूछती है कि किन्तु, हे तपस्वी! आखिर किस कारण से तुम इतने दुःखी और उदास हो? तुम्हारे मन में इतनी तीव्र पीड़ा क्यों है? तुम्हारे निराश होने के पीछे क्या कारण हैं? यह कैसी चिन्ता है जो तुम्हारे मन-मस्तिष्क में लगातार विराजमान है।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



10.

“दुःख की पिछली रजनी बीत
विकसता सुख का नवल प्रभात;
एक परदा यह झीना नील
छिपाए है जिसमें सुख गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत् की ज्वालाओं का मूल;
ईश का वह रहस्य वरदान
कभी मत इसको जाओ भूला”

शब्दार्थ: रजनी-रात; विकसता-निकलता; नवल प्रभात-नया सवेरा; झीना- पतला; अभिशाप-शाप, अशुभ का कारण; जगत-संसार; ज्वाला-आग, समस्याः । मूल-आधार; ईश-ईश्वर; रहस्य वरदान-अनसुलझा हुआ वरदान।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा-मनु को प्रेरित करते हुए कहती है कि दुःख की रात के ही मध्य सुख का नया सेवरा उदित होता है। जिस प्रकार प्रभात का प्रकाश अन्धकार के महीन परदे में छिपा रहता है, उसी प्रकार सुख भी दु:ख के महीन आवरण में छिपा रहता है कहने का तात्पर्य यह है कि दुःख का यह प्रभाव अधिक देर तक नहीं टिकता और नई आशाओं को सँजोए हुए सुख का आगमन होकर रहता है। श्रद्धा आगे कहती है कि जिस दुःख से परेशान होकर तुमने उसे अभिशाप मान लिया है और उसे ही सभी समस्याओं का कारण समझ बैठे हो, वास्तव में वह दुःख ईश्वर से हमें वरदान सदृश प्राप्त हुआ है, किन्तु इस रहस्य को समझ पाना आसान नहीं। बावजूद इसके तुम्हें इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि दुःखरूपी वरदान ही मानव को सुख प्राप्त करने के लिए सदा प्रेरित करता रहता है।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



11.

लगे कहने मनु सहित विषाद-
“मधुर मारुत से ये उच्छ्वास;
अधिक उत्साह तरंग अबाध
उठाते मानस में सविलास।
किन्तु जीवन कितना निरुपाय!
लिया है देख नहीं सन्देह;
निराशा है जिसका परिणाम
सफलता का वह कल्पित गेह।”

शब्दार्थ: विषाद-दुःखः मधर मारुत आनन्ददायक पवन; उच्छवास सॉस के रूप में वायु का आना-जाना; अबाध-बाधारहित; मानस हृदय; सविलास-क्रीड़ा सहित, कल्पित गेह-कल्पना का घर।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा की बातों को सुनकर मनु दुःख भरे शब्दों में कहते हैं कि शीतल मन्द पवन की तरह सुखद प्रतीत होने वाले तुम्हारे ये उच्छवास निश्चय ही आनन्द प्रदान करने वाले और मन को सौन्दर्य की अनुभूति से परिपूर्ण कर देने वाले हैं। इनके परिणाम स्वरूप मन में निरन्तर ही उत्साह की तरंगें हिलोरे ले रही हैं, किन्तु इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि मनुष्य का जीवन विषाद से परिपूर्ण है और वह उसके सम्मुख विवश और असहाय है। हम जीवन में अनेक सफलताओं की कामना करते हैं, लेकिन सच्चाई तो यह है कि हमें उन सबका परिणाम एकमात्र निराशा के रूप में ही प्राप्त होता है। इस छोटे-से जीवन में हम अपनी विभिन्न चाहों की पूर्ति कभी नहीं कर पाते और एक दिन हमें इस संसार को छोड़कर जाना पड़ता है। अतः कहा जा सकता है कि हमारा जीवन सफलता की कल्पनाओं का घर है।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



12.

कहा आगन्तुक ने सस्नेह-
“अरे, तुम इतने हुए अधीर;
हार बैठे जीवन का दाँव ।
जीतते मर कर जिसको वीर।
तप नहीं केवल जीवन सत्य
करुण यह क्षणिक दीन अवसाद;
तरल आकांक्षा से है भरा
सो रहा आशा का आह्लाद।

शब्दार्थ: सस्नेह-प्रेम सहित; दाँव हारना असफल होना; मर कर जीतना-श्रम से सफलता पाना; क्षणिक क्षण भर का; दीन अवसाद-दीनता से । परिपूर्ण दुःख, तरल आकांक्षा प्रगति की चाह; आह्वाद-प्रसन्नता, खुशी।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: शमनु की बात सुनकर आगन्तुक श्रद्धा कहती है कि हे तपस्वी! तुमने धैर्य खो दिया है। अब तुममें उस सफलता को पाने की तीव्र उत्कण्ठा भी शेष नहीं; जिसे वीर पुरुष अथक परिश्रम के बल पर प्राप्त करते हैं, क्योंकि साहसी और कर्मवीर बनने की जगह तुम निराश और हतोत्साहित हो गए हो। हे तपस्वी! केवल तपस्या को जीवन का ध्येय बनाना कदापि उचित नहीं, क्योंकि बस यही एक जीवन का सत्य नहीं है। तुम जिस करुणा और दीनतापूर्ण दुःख की स्थिति में जी रहे हो वह अविलम्ब ही समाप्त होने वाली है। वास्तव में मानव-जीवन आशा, उत्साह और खुशियों से परिपूर्ण है। बस आवश्यकता है। उन्हें जगाने की। अतः हमें पूरे उत्साह के साथ आशान्वित होकर जीना चाहिए। निराशा का दामन हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



13.

प्रकृति के यौवन का श्रृंगार
करेंगे कभी न बासी फूल;
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र
आह उत्सुक है उनको धूल।
एक तुम, यह विस्तृत भू-खण्ड
प्रकृति वैभव से भरा अमन्द;
कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनन्द।
अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते? तुच्छ विचार;
तपस्वी! आकर्षण से हीन
कर सके नहीं आत्म विस्तार।

शब्दार्थ: बासी जो ताजा न हो; उत्सुक लालायित, जानने के लिए इच्छुक, विस्तृत-विशाल, बड़ा; भू-खण्ड-धरती का टुकड़ा; वैभव-सौन्दर्य, सम्पदा; अमन्द-प्रयत्नशील, प्रकाशवान; जड-स्थित, अगतिशील, धराः | चेतन- सजीवता; असहाय-निराश्रित; यजन-यज्ञ; वच्छ-अधम, निम्न आत्म विस्तार-अपनी उन्नति।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा निराश मनु को समझाते हुए कहती है कि प्रकृति की शोभा कभी भी बासी अथवा मुरझाए हुए फूल नहीं बढ़ाते, जो फूल ताजे हों और खिले हुए हों उन्हीं की सुन्दरता और खुशबू से उद्यान अथवा वन सुशोभित होते हैं। डाल से टूटे हुए फूलों का तो बस एक ही परिणाम होता है और वह है-धूल में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर लेना। अत: मानव को भी निराशा और अकर्मण्यता त्याग कर आशा और उद्यम के सहारे अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। श्रद्धा निराशा से भरे मनु के मन में आशा के दीप जलाना चाहती है। वह कहती है कि एक ओर तुम हो कि बस निराशा और असफलता की ही बातें करते रहते हो और दूसरी ओर प्राकृतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण यह विस्तृत भ-भाग है, जो हमें नित आशाओं और उत्साह से भरकर कर्मवीर बनने का सन्देश देता रहता है। तुम्हें इस प्रकार निराश और उद्यमहीन होकर जीवन नहीं । बिताना चाहिए, बल्कि कठिन परिश्रम करते हुए इस पथ्वी पर स्थित संसाधनों का उचित रूप से उपभोग करना चाहिए। हमें अपने कर्म के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है। हम इस जन्म में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों के आधार पर ही अगले जन्म में सुख या दुःख का भोग करते हैं। हमें निष्काम कर्मयोग’ अर्थात फल पाने की चिन्ता को त्यागकर कर्म में रत रहने के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए जीवन जीना चाहिए। हमारी प्रकृति में भी इसी सिद्धान्त का पालन किया जाता है। पेड-पौधे, जिन्हें जड माना गया है, निःस्वार्थ भाव से फूलते-फलते हैं। यह जड़ प्रकृति का चेतन आनन्द है। अतः हमें प्रकृति से सीख लेकर अपने जीवन को कर्म में लगाए रखना चाहिए। तत्पश्चात् श्रद्धा मनु के कहे पूर्व कथन को दोहराते हुए कहती है कि तुम्हारा कहना है कि मैं अकेला और असहाय हूँ, किन्तु तुम्हीं सोचो; क्या ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया यज्ञ कभी सफल हो सकता है जो अकेला और उत्साहहीन हो! क्या तुम्हारे द्वारा अकेले यज्ञ करने से तुम्हारे तुच्छ विचार पुष्ट नहीं होते। यज्ञ करने के दौरान पत्नी का साथ होना यज्ञ की सफलता हेतु आवश्यक है। तुम्हारे द्वारा स्वयं को विवश और निराश्रित मानना भी तुम्हारे हीन विचारों का ही प्रतिफल है। सच तो यह है कि दीन-हीन विचारों से आत्म-विस्तार करना कदापि सम्भव नहीं। अतः हे तपस्वी! तुम्हें जीवन से विरत रहकर जीने की इच्छा त्याग देनी चाहिए और जग के कल्याणार्थ कर्मवीर बनकर जीने का संकल्प लेना चाहिए।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



14.

समर्पण लो सेवा का सार
सजल संसृति का यह पतवार;
आज से यह जीवन उत्सर्ग |
इसी पद तल में विगत विकार।
बनो संसृति के मूल रहस्य
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल;
विश्व भर सौरभ से भर जाए
सुमन के खेलो सुन्दर खेल।

शब्दार्थ: सार-मूल तत्त्व, निचोड़; सजल संसति-जलयुक्त सृष्टि; पतवार- नाव खेने का डण्डा; उत्सर्ग-न्योछावर;पद तल में-चरणों में विगत-विकार- पिछले दोष; बेल-लता; सौरभ-सुगन्ध; सुमन-पुष्पा

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: श्रद्धा मानवता के हितार्थ स्वयं को मनु को सौंप देना चाहती है। वह मनु से कहती है कि मैं तुम्हारी सेवा करना चाहती हूँ, इसलिए तुम मुझे स्वीकार कर लो। तुम्हारे द्वारा मेरा समर्पण स्वीकार कर लेने से हम इस सृष्टि अर्थात् सम्पूर्ण मानव जाति की भी सेवा कर सकेंगे। इस प्रकार, मेरा सेवा-कर्म इस जलमग्न अर्थात् समस्याओं से ग्रस्त संसार हेतु पतवार बनकर लोक कल्याण में सहायक होगा। तुम्हारे पिछले सभी दोषों को भूलकर मैं आज से अपना जीवन तुम्हें सौंप रही हूँ। जग कल्याणार्थ मुझे अपनी जीवनसंगिनी स्वीकार कर लो। मैं जीवन भर तुम्हारा साथ देकर अपने कर्तव्यों का पूर्णतः निर्वाह करूँगी। श्रद्धा आगे कहती है कि हे तपस्वी! मुझे अपनाकर सृष्टि को आगे बढ़ाने में सहायक बनो और इसके रहस्यों अर्थात् जीवन-मरण के सच का साक्षात्कार करो। इस सृष्टि को तुम्हारी नितान्त आवश्यकता है। तुम्हारे द्वारा ही सृष्टि की बेल जीवन पा सकेगी। अतः मुझे अपनी संगिनी अर्थात् पत्नी के रूप में सहर्ष स्वीकार कर संसार रूपी बेल को सूखने से बचा लो। तुम्हारे ऐसा करने अर्थात् सृष्टि के सुन्दर खेलों को खेलने से सम्पूर्ण विश्व मानव रूपी सुगन्धित पुष्पों से सुवासित हो उठेगा और प्रकृति खुश होकर झूमने लगेगी।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



15.

और यह क्या तुम सुनते नहीं
विधाता का मंगल वरदान-
‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो’
विश्व में गूंज रहा, जय गान।
डरो मत अरे अमृत सन्तान
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि;
पूर्ण आकर्षण जीवन केन्द्र
खिची आवेगी सकल समृद्धि!

शब्दार्थ: विधाता-ईश्वर, भाग्य निर्माता; मंगल वरदान-शुभाशीर्वाद; अमृत सन्तान-अमर पुत्र, देव-पुत्र; अग्रसर-आगे की ओर गतिशील; मंगलमय वृद्धि-कल्याणमयी उन्नति; सकल-सम्पूर्ण; समृद्धि-वैभव, खुशहाली।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या:श्रद्धा मनु से कहती है कि तुमने इस संसार की रचना करने वाले विधाता का कल्याणकारी वरदान नहीं सुना, जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘शक्तिशाली बनकर विजय प्राप्त करो। श्रद्धा कहती है कि हे देवपुत्र मन। तम इस नवीन सष्टि का विकास करने के लिए तैयार हो जाओ। किसी भी पकार की आशंका से भयभीत न हो, क्योंकि कल्याणकारी उन्नति तुम्हारे सम्मुख है। तुम्हारा जीवन आकर्षण से भरा हुआ है। अतः सभी सुख-सम्पन्नता और वैभव । स्वयं ही तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हो जाएगा।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



16.

विधाता की कल्याणी सृष्टि सफल हो इस भूतल पर पूर्णः । पटें सागर, बिखरें ग्रह-पुंज और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण। उन्हें चिनगारी सदृश सदर्प कुचलती रहे खड़ी सानन्द; आज से मानवता की कीर्ति अनिल, भू, जल में रहे न बन्द।

शब्दार्थ:भूतल-धरातल पटे-भरे ग्रह-पुंज-ग्रहों का समय, चिनगारी-अग्नि कण, स्फुलिग; सदर्प-गर्व सहित, कीर्ति-यश; अनिल-वायु

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या:सृष्टि की रचना में सहायक बनने के लिए मनु को प्रेरित करते हुए श्रद्धा कहती है कि मानव-सृष्टि संसार के समस्त जीव-जन्तुओं एवं प्रकृति के लिए कल्याणकारी है। तुम अपने मानवोचित कर्तव्यों का निर्वहन कर ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि के क्रम को चलाने में अपना योगदान दो, ताकि वंश-वृद्धि के द्वारा पृथ्वी अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सके। तुम्हारे योगदान से अर्थात् सृष्टि-क्रम को आगे बढ़ाने से मानव-शक्ति के द्वारा सारे उफनते समुद्रों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया जाएगा। सारे ग्रह-नक्षत्र चारों ओर फैलकर सृष्टि को आलोकित करते हुए मानव-शक्ति का गुणगान करेंगे। उसके समक्ष विध्वंसकारी ज्वालामुखियों की भी एक न चलेगी और उन्हें भी शान्त कर दिया जाएगा अर्थात् मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं पर विजय पाकर उनसे होने वाली हानियों से समस्त जीवों की रक्षा करेगा। आज से वायु, पृथ्वी एवं जल जैसे प्राकृतिक तत्त्व भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैलने वाले मानवता के यश को अवरुद्ध नहीं कर पाएँगे।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



17.

जलधि के फूटें कितने उत्स
द्वीप, कच्छप डूबे-उतराय;
किन्तु वह खड़ी रहे दृढ़ मूर्ति
अभ्युदय का कर रही उपाय।
शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय;
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय।

शब्दार्थ:जलधि-समुद्र; उत्स-स्रोत; कच्छप-कछुआ; अभ्युदय- उत्थान, उन्नति, विद्युत्कण बिजली के कण; विकल-अस्थिर, बेचैन, निरुपाय-बिना उपाय के समन्वय-मिलन, एकत्र करना; विजयिनी-जीत प्राप्त करने वाली।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘श्रद्धा-मनु’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या:शप्रलय अर्थात् पृथ्वी के जलमग्न होने की बातों का उल्लेख करते हुए श्रद्धा मन को समझाती है कि भीषण प्रलय में समुद्र के बहुत से स्रोत फूट गए थे और चारों ओर जल-ही-जल हो जाने की स्थिति में द्वीपों सहित कछुआ आदि समस्त जीव-जन्तु उसमें डूबने और बहने लगे थे इसके बावजूद मानवता की रक्षा और उत्थान हेतु नव प्रयास जारी हैं। मानवता की दृढ़ मूर्ति के रूप स्वयं हम दोनों यहाँ एक साथ विद्यमान हैं। यहाँ श्रद्धा की बातों का आशय यह है कि महाप्रलय के बाद भी मानवता अपने अस्तित्व की रक्षा करने में विजयी रही है। अतः मनु का। स्वयं को निरुपाय न मानकर समस्या के समाधान पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।श्रद्धा कहती है कि इस सृष्टि की रचना शक्तिशाली विद्युतकणों से हुई है, किन्तु जब तक विद्युतकण अलग-अलग होकर भटकते हैं, तब तक ये शक्तिहीन होते हैं और जब ये परस्पर मिल जाते हैं, तब इनमें अपार शक्ति का स्रोत प्रस्फुटित होती है। ठीक उसी प्रकार जब तक मानव अपनी शक्ति को संचित न करके उसे बिखेरता रहता है, तब तक वह शक्तिहीन बना रहता है और जब वह समन्वित हो जाता है, तो वह विश्व को जीत लेने की अपार शक्ति प्राप्त कर लेता है।

काव्य सौंदर्य:रस: संयोग श्रृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास, गुण: माधुर्य, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा

( पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)

प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1. बीती विभावरी जाग री।
अम्बर-पनघट में डुबो रही-
तारा-घट ऊषा-नागरी।
खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई-
मधु-मुकुल नवल रस-गागरी।
अधरों में राग अमन्द पिए,
अलकों में मलयज बन्द किए-
तू अब तक सोई है आली!
आँखों में भरे विहाग री।


01 प्रस्तुत पद्यांश के कवि व शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित गीत ‘बीती विभावरी जागरी’ से उद्धृत किया गया है।

02 ‘अम्बर-पनघट में डूबो रही, तारा-घट ऊषा-नागरी। इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से नायिका की सखी उसे सबह होने के विषय में। बताते हुए कहती है कि ऊषा रूपी नायिका आकाश रूपी पनघट में तारा रूपी घड़े को डुबो रही है अर्थात् रात्रि का समय समाप्त हो गया है और सुबह हो गई है, लेकिन वह अभी तक सोई हुई है।

03 प्रभात का वर्णन करने के लिए कवि ने किन-किन उपादानों का प्रयोग किया है?

उत्तर: प्रभात का वर्णन करने के लिए कवि ने आकाश में तारों के छिपने, सुबह-सुबह पक्षियों के चहचहाने, पेड़-पौधों पर उगे नए पत्तों के हिलने, समस्त कलियों के पुष्पों में परिवर्तित होकर पराग से युक्त होने आदि उपादानों का प्रयोग किया

04 प्रस्तुत पद्यांश के कथ्य का वर्णन कीजिए।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में सुबह होने के पश्चात् भी नायिका के सोने के कारण उसकी सखी उसे जगाने के लिए आकाश में तारों के छिपने, पक्षियों के चहचहाने आदि घटनाओं का वर्णन करते हुए उसे जगाने का प्रयास करती है। वह उसे बताना चाहता है कि सर्वत्र प्रकाश होने के कारण सभी अपने कार्यों में संलग्न हो गए हैं, किन्तु वह अभी भी सोई हुई है।

05 प्रस्तुत गद्यांश में मानवीकरण अलंकार की योजना पर प्रकाश डालिए।

उत्तर: मानवीकरण अलंकार में प्राकृतिक उपादानों के क्रियाकलापों का वर्णन मानवीय . क्रियाकलापों के रूप में किया जाता है। प्रस्तुत पद्यांश में सुबह की नायिका के रूप में वर्णन, पत्तों का आँचल डोलना. लताओं का गागर भरकर लाना आदि पद्यांश में मानवीकरण अलंकार के प्रयोग पर प्रकाश डालते हैं।



प्रश्न 2. ‘कौन तुम! संसृति-जलनिधि तीर
तरंगों से फेंकी मणि एक
कर रहे निर्जन का चुपचाप
प्रभा की धारा से अभिषेक?
मधुर विश्रान्त और एकान्त
जगत् का सुलझा हुआ रहस्य;
एक करुणामय सुन्दर मौन
और चंचल मन का आलस्य!


01 पद्यांश के कवि व शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश की रचना जयशंकर प्रसाद ने की है, जिसका शीर्षक । ‘श्रद्धा-मनु’ है।

02 प्रस्तुत पद्यांश में ‘संसृति-जलनिधि किसे व क्यों कहा गया है?

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में ‘संसृति-जलनिधि’ अर्थात् संसार रूपी सागर से निकली हुई अमूल्य निधि मनु को कहा गया है, क्योंकि जिस तरह सागर की तरंगें अपने भीतर की अमूल्य मणियों व मोतियों को किनारे पर लाकर छोड़ देती हैं, उसी प्रकार जल-प्लावन की घटना ने मनु को इस संसार में छोड़ दिया है।

03 प्रस्तुत पद्यांश में किसके मन की व्याकुलता को उजागर किया गया है?

उत्तर: जल-प्लावन की घटना के पश्चात् सम्पूर्ण संसार में नीरवता छा गई थी. लेकिन उसके पश्चात् भी इस निर्जन संसार में मनु के रूप में मनुष्य को देखकर श्रद्धा के मन में उसके विषय में जानने की व्याकुलता थी। श्रद्धा के मन की इसी व्याकुलता को कवि ने काव्यांश में उजागर किया है।

04 मनु को देखने के पश्चात् श्रद्धा को कैसी अनुभूति होती है?

उत्तर: मनु को देखने के पश्चात् श्रद्धा को वह समुद्र से निकली हुई मणियों की भाँति प्रतीत होता है, जो किनारे पर पड़ा होकर समुद्र तट को अपनी आभा से आलोकित करता है। साथ ही वह उसे मधुरता एवं नीरवता से परिपूर्ण संसार में सुलझे हुए रहस्य की तरह दिखाई देता है।

05 पद्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने सागर की लहरों द्वारा फेंकी हुई मणि से मन की तलना करके उसके एकांकी जीवन की निराशा और कर्म-विरत स्थिति का। चित्रण किया है। जिसे वे श्रद्धा द्वारा यह कहलवाकर प्रकट करते हैं कि । तुम्हारे चंचल मन ने आलस्य को ग्रहण कर लिया है।







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