पाठ 4 : कैकेयी का अनुताप

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मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ


प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान पर 1888 ई में हुआ था। इनके पिता का नाम सेठ रामचरण गप्त और माता का नाम काशीबाई था। इनके पिता को हिन्दी साहित्य से विशेष प्रेम था, गुप्त जी पर अपने पिता का पूर्ण प्रभाव पड़ा। इनकी प्राथमिक शिक्षा चिरगाँव तथा माध्यमिक शिक्षा मैकडोनल हाईस्कूल (झाँसी) से हुई। घर पर ही अंग्रेजी, बांग्ला, संस्कृत एवं हिन्दी का अध्ययन करने वाले गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनाएँ कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘वैश्योपकारक’ नामक पत्र में छपती थीं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के सम्पर्क में आने पर उनके आदेश, उपदेश एवं स्नेहमय परामर्श से इनके काव्य में पर्याप्त निखार आया। द्विवेदी जी को ये अपना गुरु मानते थे। उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर गुप्त जी ने खड़ीबोली में ‘भारत-भारती’ की रचना की। राष्ट्रीय विशेषताओं से परिपूर्ण रचनाओं का सृजन करने के कारण ही महात्मा गांधी ने इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि दी। आगरा और प्रयाग विश्वविद्यालय की ओर से इन्हें मानद डी.लिट् की उपाधि प्रदान की गई। ‘साकेत’ महाकाव्य के लिए इन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। 12 दिसम्बर, 1964 को माँ भारती का यह सच्चा सपूत सदा के लिए पंचतत्व में विलीन हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ:- गुप्त जी ने खड़ीबोली के स्वरूप के निर्धारण एवं विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनाओ भारत-भारती आदि में इतिवृत्तकथन की अधिकता है, किन्तु इनकी बाद की रचनाओं, जैसे-यशोधरा और साकेत में लाक्षणिक वैचित्र्य एवं सूक्ष्म मनोभावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। गुप्त जी ने इन दोनों रचनाओं में प्रबन्ध के अन्दर गीति-काव्य का समावेश कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की है।

कृतियाँ:- लगभग 40 मौलिक काव्य ग्रन्थों में भारत-भारती, किसान, शकुन्तला, पंचवटी, त्रिपथगा, साकेत, यशोधरा, द्वापर, नहुष, काबा और कर्बला आदि उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त गुप्त जी ने अनघ, तिलोत्तमा एवं चन्द्रहास जैसे तीन छोटे-छोटे पद्यबद्ध रूपक भी लिखे। अनूदित रचनाओं में प्लासी का युद्ध, मेघनाद-वध तथा वृत्र-संहार उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।



(प्रथम भाग: कैकेयी का अनुताप) पद्यांशों की सन्दर्भ सहित हिन्दी में व्याख्या:


1.

तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
नीले वितान के तले दीप बहु जागे।
टकटकी लगाए नयन सुरों के थे वे,
परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे।
उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह-रहकर
करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह-महकर। वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
प्रभु बोले गिरा, गम्भीर नीरनिधि जैसी।

शब्दार्थ:तदनन्तर -इसके पश्चात: उटज -कुटिया; वितान-मण्डप: तले नाच, दीपन्तारा; टकटकी लगाना एकटक दखना; नयन आख, सुर देवता; परिणामोत्सुक परिणाम के लिए उत्सुक भयातरों भयभीत उत्फल्ल-विकसित, प्रसन्न करौदी-कंज-करौंदे का बगीचा, पुलक-पूर्ण आनन्द से परिपूर्ण, गिरावाणी; नीरनिधि-सागरा

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: भरत सहित अयोध्यावासियों के पंचवटी पहुँचने के पश्चात् रात्रि में श्रीराम की कुटिया के सामने सभा बैठाई गई, जिसे देख ऐसा आभास हो रहा था कि मानो आकाश रूपी मण्डप के नीचे बहुत से तारे रूपी दीपक जगमगा रहे हों, सभा में लिए। जाने वाले महत्त्वपूर्ण निर्णय का परिणाम जानने के लिए उत्सुक देवतागण भी वहाँ । एकटक नजरें गड़ाए हुए थे। सभी इस बात को लेकर भयभीत थे कि कहीं भरत के । आगमन का श्रीराम कुछ और ही अर्थ निकालकर कोई कठोर निर्णय न कर लें। वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अनुपम था। खिले हुए करौंदे पुष्पों से भरे हुए । बगीचों से रह-रह कर आने वाली मन्द, शीतल व सुगन्धित पवन वहाँ उपस्थित लोगों को पुलकित कर रही थी। वहाँ ऐसी मनोहर चाँदनी छिटक रही थी, जिसका अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। वह सभा चन्द्रलोक-सी प्रतीत हो रही थी। अलौकिक दृश्यों से परिपूर्ण उस शान्त सभा में श्रीराम ने सागर सदृश अति गम्भीर स्वर में बोलना प्रारम्भ किया।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी, अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा



2.

हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”।
सब सजग हो गए, भंग हुआ ज्यों सपना।
“हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?
मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?
पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा,
रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा?
तनु तड़प-तड़पकर तत्प तात ने त्यागा,
क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?

शब्दार्थ:भरतभद्र-भरतश्रेष्ठ; अभीप्सित-अभीष्ट, मनोकामना; सजग- सावधान, सतर्क, अकण्टक-बाधारहित, एकछत्र; तरु-तले-पेड़ के नीचे; अरण्य-बसेरा-जंगल में निवास; शेष-बाकी; तदपि-तो भी; तन-तन, शरीर; तप्त-दुःखी; तात-पिता; तथापि यद्यपि, अभागा-भाग्यहीन।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: जब राम अपने अनुज भरत से कहते हैं कि अब तुम अपनी इच्छा व्यक्त करो तो वहाँ उपस्थित सभी लोग वैसे सावधान हो जाते हैं, जैसे स्वप्न टूटने पर कोई व्यक्ति। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि सभी लोग राम-भरत संवाद को सुनने और उसका परिणाम जानने के लिए व्याकुल थे। राम की बात सुनकर भरत कहते हैं कि हे आर्य! अब भला मेरी और क्या अभिलाषा शेष होगी, जब मुझे अयोध्या का एकछत्र राज्य और आपको वनवास मिल गया। पिता जी ने भी दु:ख में तड़प-तड़प कर प्राण त्याग दिए। ऐसे में भला इस अभागे की और कौन-सी चाह (इच्छा) पूरी होनी, शेष रही होगी। इस प्रकार, भरत ने दुःखपूर्ण शब्दों में राम के सम्मुख अपनी मनोदशा को व्यक्त कर दिया हा उन्हें राम, लक्ष्मण और सीता का पेड़ के नीचे वन में निवास करना अत्यधिक कष्ट पहुँचा रहा है।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

3.

हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा।
अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका?
संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका।
मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,
हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?”
प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा,
रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा
“उसके आशय की थाह मिलेगी किसको?
जनकर जननी ही जान न पाई जिसको?”

शब्दार्थ:अयश-अपयश, बदनामी; जनन-जन्म; हनन-हत्या, मृत्यु; मुँह फेरना-उपेक्षा करना; रोदन जल-अश्रु जल, आँसू, सविनोद-प्रसन्नता सहित; आशय-अर्थ, तात्पर्य।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: भरत अपने भाग्य को कोसते हुए राम से कहते हैं कि विधाता ने मुझे इसी अपयश हेतु जना (जन्म देना) था। अपनी ही माता के हाथों मेरा वध करने के लिए। भला बताएँ आर्य! उस व्यक्ति की क्या इच्छा शेष रही होगी, जिसका घर-संसार सब कुछ नष्ट हो गया हो! आज मैं स्वयं अपनी ही नजरों में दोषी हूँ। स्वयं मैं ही अपनी उपेक्षा करता हूँ। ऐसे में आप ही कहें आर्य कि मेरी कौन-सी मनोकामना शेष रह गई होगी। भरत की विषादपूर्ण बातों को सुनकर राम ने अपने अनुज को हृदय से लगा लिया। प्रसन्नता के कारण उनकी आँखें भर आईं और उन्होंने भावुक होकर भरत की प्रशंसा करते हुए कहा कि जिसे स्वयं जन्म देने वाली माता ही न समझ सकी, भला उसके हृदय की गहराई को और कौन समझ सकेगा।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

4.

“यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।”
चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी-स्वर को।
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
वैधव्य-तुषारावृता यथा विधु-लेखा।
बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,
वह सिंही अब थी हहा! गोमुखी गंगा-
हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुन लें, तुमने स्वयं अभी यह माना
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,
अपराधिन मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।

शब्दार्थ:अटल-जो टलने वाला न हो, स्थिर वैधव्य-विधवापन: तुषारावृता- कुहरे से ढकी हुई; विध-लेखा-चन्द्रमा की रेखा, चाँदनी. अचल-स्थिर; असंख्यतरंगा-अनगिनत लहरों वाली; सिंही-सिंहनी: हहा-दीनता का भाव पूर्ण; गोमुखी-गाय के मुख वाली; जनकर-जन्म देकर; अपराधिन-दोषी।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: राम की इस बात को सुनकर कि भरत को स्वयं उसकी माता भी न पहचान सकी, कैकेयी कहती हैं कि यदि यह सच है, तो अब तम अपने घर लौट चलो अर्थात् मेरी उस मूर्खता को भूलकर अयोध्या। चलो. जिसके परिणामस्वरूप मैंने तुम्हारे लिए वनवास की माँग की थी। कैकेयी के मुख से दढ स्वर में कही गई इस बात को सुनकर सब विस्मित रह गए और अचानक उनकी ओर देखने लगे। उस समय विधवा रूप में श्वेत वस्त्र धारण कर वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानो कुहरे ने चाँदनी को ढक लिया हो। स्थिर बैठी होने के पश्चात भी उनके मन में विचारों की अनगिनत तरंगें उठ रही थीं। कभी सिंहनी-सी प्रतीत होने वाली रानी कैकेयी आज दीनता के भावों से भरी थीं। आज वह गंगा के सदृश शान्त, शीतल और पावन थीं।. कैकेयी आगे कहती हैं कि सभी लोग सुन लें-मैं जन्म देने के पश्चात् भी भरत को न पहचान सकी। अभी-अभी राम ने भी इस बात को स्वीकार किया है। वह राम से कहती हैं कि यदि तुम्हारी कही बात सच है तो तुम अयोध्या लौट चलो। अपराधिनी मैं हूँ, भरत नहीं। तुम्हें वन में भेजने का अपराध मैंने किया है। इसके लिए मुझे जो दण्ड चाहो दो, मैं उसे स्वीकार कर लूँगी, परन्तु घर लौट चलो, अन्यथा लोग भरत को दोषी मानेंगे।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

5.

दुर्बलता का ही चिह्न विशेष शपथ है,,
पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है?,
यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ,,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ.,
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमें सार उसे सब चुन लो।,
करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?”,
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?”,
थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती,,
रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।,
उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी,,
सबमें भय-विस्मय और खेद भरती थी।

शब्दार्थ:शपथ-सौगन्ध; अबलाजन-नारियाँ पथ-मार्ग; उकसाना–बहकाना; सार-निचोड़, यथार्थ बात; पहाड़-सा पाप-घोर अपराध; राई भर-बहुत थोड़ा; अनुताप-पश्चाताप, पछतावा; सनक्षत्र-तारों सहित; शशि-निशा-चाँदनी रात: नीरव-शान्त; उल्का-टूटकर गिरने वाला तारा: दीप्त-प्रकाशित; विस्मय-आश्चर्य; खेद-दुःख।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: कैकेयी, भरत की सौगन्ध खाते हुए राम से कहती हैं कि सौगन्ध खाने से व्यक्ति की दुर्बलता प्रकट होती है, परन्तु स्त्रियों के लिए इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं हैं। वह राम को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे राम! मुझे तुम्हारे वनवास के लिए भरत ने नहीं उकसाया था। यदि यह सच नहीं तो मैं पति के समान ही। अपना पुत्र भी खो बैलूं। मुझे यह कहने से कोई न रोके। मैं जो कह रही हैं, सभी सुन लें। यदि मेरे कथनों में कोई यथार्थ बात हो तो उसे ग्रहण कर लें। मुझसे यह न सहा। जा सकेगा कि मैं इतना बड़ा पाप करके थोड़ा भी पश्चाताप प्रकट न करूँ और मौन रह जाऊँ। कैकेयी के यह सब कहने के दौरान तारों से भरी चाँदनी रात ओस के रूप में अश्रु-जल बरसा रही थी और नीचे मौन सभा हृदय को थपथपाते हुए रुदन कर रही थी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि कैकेयी के हृदय-परिवर्तन और उनके पश्चाताप को देख सभा में उपस्थित सभी लोगों की संवेदना उनके साथ थी मानो सभासद सहित प्रकृति ने भी उन्हें उनके अपराध के लिए क्षमा कर दिया हो। रानी कैकेयी, जिसने अपनी अनुचित माँग से पूरे अयोध्या और वहाँ के निवासियों का जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था, आज पश्चाताप की अग्नि में जलकर चारों ओर सदभाव की किरणें बिखेर रही थीं। उनके इस नए रूप के परिणामतः वहाँ उपस्थित लोगों में एक साथ भय, आश्चर्य और शोक के भाव उमड़ रहे थे।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

6.

क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी.
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।
जल पंजर-गत अब अरे अधीर, अभागे,
वे ज्वलित भाव थे स्वयं मुझी में जागे।
पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में?
क्या शेष बचा कुछ न और जन में?
कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य-मात्र क्या तेरा?
पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चूके?
छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,
रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?

शब्दार्थ:दासी -सेविका;निज -अपना;पंजर मत -शरीर के अन्दर स्थितःअधीर -धैर्य न रखने वाला:वात्सल्य -सन्तान से प्रेम का भाव: वत्स -पुत्र;त्रैलोक्य -तीनों लोक (धरती, आकाश, पाताल); मातृपद -माता का पद;दुहाई-दीनतापूर्ण की गई याचना।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: कैकेयी, मन्थरा को निर्दोष बताते हुए कहती हैं कि मन्थरा तो साधारण-सी दासी है। वह भला मेरे मन को कैसे बदल सकती! सच तो। यह है कि स्वयं मेरा मन ही अविश्वासी हो गया था। अपने मन को अधीर और अभागा मान कैकेयी अपने अन्तर्मन को कहती हैं कि मेरे शरीर में स्थित हे मन! ईर्ष्या-द्वेष से परिपूर्ण वे ज्वलन्त भाव स्वयं तझमें ही जागे थे। तत्पश्चात् वह अगले ही क्षण सभा को सम्बोधित करते हुए प्रश्न पूछती हैं कि क्या, मेरे मन में केवल आग लगाने वाले भाव ही थे? क्या मुझमें और कुछ भी शेष न था? क्या मेरे मन के वात्सल्य भाव अर्थात् पुत्र-स्नेह का कुछ भी मूल्य नहीं? किन्तु हाय आज स्वयं मेरा पुत्र ही मुझसे पराए की तरह व्यवहार करता है। अपने कर्मों पर पछताते हुए कैकेयी आगे कहती हैं कि तीनों लोक अर्थात् धरती, आकाश और पाताल मुझे क्यों न धिक्कारे, मेरे विरुद्ध जिसके मन में जो आए वह क्यों न कहे, किन्तु हे राम! मैं तुमसे दीन स्वर में बस इतनी ही विनती करती हूँ कि मेरा मातृपद अर्थात् भरत को पुत्र कहने का मेरा अधिकार मुझसे न छीना जाए। ।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

7.

कहते आते थे यही सभी नरदेही,
“माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही।”
अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता,-
“है पुत्र पुत्र ही, रहे कुमाता माता।”
बस मैंने इसका बाह्य-मात्र ही देखा,
दृढ़ हृदय ने देखा, मृदुल गात्र ही देखा।
परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा,
इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा।
युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी-
‘रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।’

शब्दार्थ:नरदेही-मानव तन धारण करने वाला, मनुष्य; कमाता -बुरी माता; । कुपुत्र -बुरा पुत्र; विधाता -ईश्वर;बाहा-मात्र -बाहरी दल -स्थिर, कठोर; मृदुल -कोमल;गात्र -गात, शरीर परमार्थ-दूसरों का हित साधा -पूरा किया; अभागिन -भाग्यहीना

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: आत्मग्लानि में डूबी हुई कैकेयी कहती हैं कि अभी तक तो मानव जाति में यही कहावत प्रचलित थी कि पुत्र, कुपुत्र भले ही हो जाए, माता कभी कमाता नहीं होती अर्थात् पुत्र माता के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने में चाहे कितनी भी लापरवाही क्यों न दिखाए, उनके प्रति कितना भी अपराध क्यों न करे, माता उसे क्षमा करके उसके प्रति अपना उत्तरदायित्व सदा निभाती ही रहती है, किन्तु अब तो सभी लोग यह कहेंगे कि विधाता के बनाए नियमों के विरुद्ध यहाँ पुत्र तो पत्र ही है, माता ही कमाता हो गई है अर्थात् संसार मुझ पर बुरी माता होने का आरोप लगाएगा. क्योंकि मैंने पुत्र के हित के विरुद्ध कार्य किया है। कैकेयी अपने दोष गिनाते हुए आगे कहती हैं, कि मैंने अपने पुत्र (भरत) का केवल बाहरी रूप ही देखा है, उसके दृढ़ हृदय को मैं न समझ सकी। मेरी दृष्टि बस उसके कोमल शरीर तक गई, उसके परमार्थी स्वरूप को मैं अब तक न देख सकी। इन्हीं कारणों से आज मैं इन समस्याओं से घिरी हूँ और मेरा जीवन दुभर हो गया है। अब तो युगों-युगों तक मैं दुष्ट माता के रूप में जानी जाऊँगी। मुझे याद कर लोग कहेंगे कि रघुकुल में एक अभागिन रानी थी, जिसे स्वयं उसके पुत्र ने त्याग दिया था।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

8.

निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा
“धिक्कार! उसे था महा स्वार्थ ने घेरा”
“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।”
पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई-
“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।”
“हाँ! लाल? उसे भी आज गमाया मैंने,
विकराल कुयश ही यहाँ कमाया मैंने।

शब्दार्थ:जीव-आत्मा; लाल-पुत्र; माई-माता; जना-जन्म दिया; गमाया- गॅवाया, खोया; विकराल-भयंकर कुयश-अपयश, कलंक

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: कैकेयी पश्चाताप व्यक्त करते हुए कह रही हैं कि अब तो जन्म-जन्मान्तर तक मेरी आत्मा यह सुनने के लिए विवश होगी कि अयोध्या की रानी कैकेयी को महा स्वार्थ ने घेरकर ऐसा अनुचित कर्म कराया कि उसने धर्म के मार्ग का त्याग कर अधर्म के मार्ग का अनुसरण किया। कैकेयी की इन बातों को सुनकर राम सहित सभासदों ने एक स्वर में कहा कि भरत जैसे महान् पुत्र रत्न को जन्म देने वाली माता सौ-बार धन्य हैं। अतः । यहाँ सभी लोगों द्वारा एक मत से कैकेयी को निर्दोष कहा जा रहा है। – सभासदों की बात को सुनकर कैकेयी ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उनकी बात दोहराई और कहा कि हाँ मैं उसी पुत्र की अभागिन माता हूँ, जिसे बात मैंने खो दिया है वह पत्र भी अब मेरा नहीं रहा। उसने मुझे माता मानने से। इनकार कर दिया है। मैंने हर प्रकार से अपयश ही कमाया है और स्वयं को । कलंकित भी कर लिया है।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

9.

निज स्वर्ग उसी पर वार दिया था मैंने,
हर तुम तक से अधिकार लिया था मैंने।
पर वही आज यह दीन हुआ रोता है,
शंकित तबसे धृत हरिण-तुल्य होता है।
श्रीखण्ड आज अंगार-चण्ड है मेरा,
तो इससे बढ़कर कौन दण्ड है मेरा?
पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में,
जन क्या-क्या करते नहीं स्वप्न में, मद में?

शब्दार्थ:वार दिया-न्योछावर कर दिया; हरना-छीनना; दीन-गरीब-दुखियाःआ शंकित-शंका से ग्रसित; धृत-पकड़े हुए; श्रीखण्ड-चन्दन; अंगार-चण्ड- दहकती हुई आग; पद-पाणि-हाथ-पैर।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: पश्चाताप की अग्नि में जलती हुई कैकेयी, राम से कहती हैं कि मैंने अपने उस पुत्र पर अपना स्वर्ग-सुख भी न्योछावर कर दिया था और उसी के कारण मैंने तुम्हारा अधिकार (राज्य) भी तुमसे छीन लिया। मेरा वही पुत्र आज दीन-हीन होकर करुण क्रन्दन कर रहा है। वह तब से किसी पकड़े गए हिरन की तरह सभी से भयभीत हो रहा है। चन्दन के समान शीतल स्वभाव वाला मेरा पुत्र भरत, आज जलते हुए अंगारे की तरह प्रचण्ड दिख रहा है। इससे बढ़कर मुझ अभागिन के लिए दूसरा दण्ड और क्या हो सकता है कि मेरा पुत्र ही मुझसे अलग हो गया है, वह मुझसे कुपित है। हे राम! अब मुझे और बड़ा दण्ड मत दो। मैंने अपने हाथ-पैर मोहरूपी नदी में फेंके और पटके अर्थात् राज्य के मोह में फँस कर ही मैंने यह सब किया। मेरा यह कार्य ऐसा ही था, जैसे कोई व्यक्ति पागलपन में अथवा स्वप्न में व्यवहार करता है। अतः मेरे इस कार्य को पागलपन अथवा स्वप्न में किया गया कार्य समझकर मुझे क्षमा कर दो।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

10.

हा! दण्ड कौन, क्या उसे डरूँगी अब भी?
मेरा विचार कुछ दयापूर्ण हो तब भी।
हा दया! हन्त वह घृणा! अहह वह करुणा!
वैतरणी-सी है आज जाह्नवी-वरुणा!
सह सकती हूँ चिर, नरक, सुने सुविचारी,
पर मुझे स्वर्ग की दया दण्ड से भारी।
लेकर अपना यह कुलिश-कठोर कलेजा,
मैंने इसके ही लिए तुम्हें वन भेजा।
घर चलो इसी के लिए, न रूठो अब यों,
कुछ और कहूँ तो उसे सुनेंगे सब क्यों?

शब्दार्थ:हन्त-हाय; वैतरणी-नरक की एक कल्पित दूषित नदी; जाह्नवी-गंगा; वरुणा-वाराणसी में बहने वाली गंगा की एक सहायक नदी: चिर-प्राचीन: सुविचारी-अच्छे विचार वाले; कुलिश-वज्र।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: कैकेयी, राम के समक्ष अपनी पीड़ा व्यक्त करती हुई कहती हैं कि मेरे घोर अपराध हेतु जो भी दण्ड मुझे दिया जाएगा वह कम ही होगा। मेरी दीनतापूर्ण याचना के स्वर को सुनकर यह न समझा जाए कि मैं दण्ड भोगने से भाग रही हूँ अथवा मुझे दण्ड स्वीकार नहीं। वस्तुतः आज दया, घृणा, करुणा, सबने अपने अर्थ खो दिए हैं। आज गंगा और वरुणा जैसी पावन नदियाँ भी मेरे लिए नरक की भाँति अति दूषित नदी वैतरणी बन गई हैं। मैं सभी सज्जन व प्रबुद्ध लोगों से कहती हूँ कि मैं लम्बी अवधि तक नरक का दुःख भोग सह सकती हूँ, किन्तु स्वर्ग पाने की याचना का भार मुझसे नहीं सहा जाएगा, क्योंकि वह नरक की पीड़ा से कहीं बढ़कर है। कैकेयी आगे कहती हैं कि हे राम, मैंने जिसके (भरत) लिए अपने हृदय को वज्र-सा कठोर बनाकर तुम्हें वन में भेजा था, आज उसी के हितार्थ तुम रूठना छोड़ दो और घर लौट चलो। मैं इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ कहना चाहूँ भी तो मेरी कही गई बातों को भला कौन विश्वास करेगा।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

11.

मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,
मेरे दुगुने प्रिय रहो न मुझसे न्यारे।
मैं इसे न जानूँ, किन्तु जानते हो तुम,
अपने से पहले इसे मानते हो तुम।
तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,
यदि वह सब पर यों प्रकट हुआ है वैसा।
तो पाप-दोष भर पुण्य-तोष है मेरा,
मैं रहूं पंकिला, पद्म-कोष है मेरा,
आगत ज्ञानीजन उच्च भाल ले लेकर,
समझावें तुमको अतुल युक्तियाँ देकर।
मेरे तो एक अधीर हृदय है बेटा,
उसने फिर तुमको आज भुजा भर भेटा।

शब्दार्थ:न्यारा-अलग, पृथकः भ्राता-भाई, परस्पर-आपसी: तोष-सन्तोष: पंकिला-कीचड़ में सनी हुई पद्म-कोष-कमल का कोष; आगत-आया हुआ, उच्च भाल-उन्नत, मस्तक, तर्क-वितर्क, अतुल-अनुपम, बड़ी; युक्ति-उपाय।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या:कैकेयी, राम से कहती हैं कि हे पुत्र! मुझे भरत प्रिय है और भरत को तुम प्रिय हो। अतः मेरे लिए तुम दोगुने प्रिय हो। इस कारण तुम मुझसे अलग न रहो। यह सत्य है कि मैं भरत को अब तक न पहचान सकी, पर तुम तो इसे पूर्णरूपेण जानते हो और इसे स्वयं से बढ़कर प्यार करते हो। तुम दोनों भाइयों के आपसी प्रेम की अभिव्यक्ति के प्रभाव से आज मेरे पाप का दोष भी पुण्य के सन्तोष में परिणत हो गया है। कैकेयी आगे कहती हैं कि कीचड के समान होने पर भी मुझे इस बात का सन्तोष है कि मैंने अपनी कोख से कमल रूपी रत्न भरत को जन्म दिया है। भविष्य में ज्ञानी लोग तम दोनों भाइयों के प्रेम को तरह-तरह से प्रमाणित करेंगे और उसे श्रेष्ठ सिद्ध करेंगे और ऐसा होना भी चाहिए, किन्तु एक विवश माँ के लिए इन तर्क-वितर्कों का भला क्या महत्त्व। इस धैर्यहीन माँ की तो अब बस एक ही इच्छा है कि वह तुम-दोनों पुत्रों को सदा अपनी आँखों के सम्मुख देखे। अपने से कभी दूर न होने दे। आज इस माँ का अधीर हृदय तुम्हें अपनी बाँहें फैलाकर तुमसे विनती कर रहा है कि अयोध्या लौट चलो।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

(द्वितीय भाग: गीत) पद्यांशों की सन्दर्भ सहित हिन्दी में व्याख्या:


1.

निरख सखी, ये खंजन आए,
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाए!
फैला उनके तन का आतप, मन से सर सरसाए,
घूमें वे इस ओर वहाँ, ये हंस यहाँ उड़ छाए! ।
करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुसकाए,
फूल उठे हैं कमल, अधर-से यह बन्धूक सुहाए!
स्वागत, स्वागत, शरद, भाग्य से मैंने दर्शन पाए,
नभ ने मोती वारे, लो, ये अश्रु अर्घ्य भर लाए।।

शब्दार्थ:निरख-देख, खंजन-सुन्दर आँखों वाला एक पक्षी; रंजन-प्रसन्न करने वाले प्रियतम (लक्ष्मण); आतप-ताप, गर्मी, सर-सरोवर, तालाब; सरसाए-सरसता; जन-आत्मीय; अधर-होंठ; बन्धूक-एक लाल फूल; । नभ-आकाश, अध्ये-पूजन के लिए लाया गया जल।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘गीत’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: विरहिणी उर्मिला अपनी संगिनी से कह रही हैं कि देखो सखी। ये खंजन पक्षी आ गए हैं। मुझे ऐसा लगता है, जैसे आनन्द देने वाले प्रियतम ने इन खंजन पक्षियों के रूप में सुन्दर लगने वाले अपने नेत्र मेरी ओर घुमा दिए हैं। । चारों ओर धूप के रूप में प्रियतम के शरीर की गर्मी (तपस्या के कारण उत्पन्न) फैली हुई है और उनके (लक्ष्मण के) मन की सरसता और स्निग्धता के कारण सरोवर कमल के फूलों से खिल उठे हैं अर्थात कमलों से भरे सरोवर को देखकर मेरा मन ऐसे प्रसन्न हो उठा है, मानो उसे प्रियतम के सरस-स्निग्ध शरीर की समीपता प्राप्त हो गई हो। वन में मेरे प्रियतम घूम रहे होंगे और उस मन्द-मन्द गति का स्मरण दिलाने के लिए ही ये हंस उड़कर यहाँ आ गए हैं। मेरे। प्रियतम, वन में मुझे याद करके अवश्य मसकाए होंगे, तभी तो यहाँ ये कमल खिल उठे हैं और लाल रंग के बन्धूक के फूल प्रियतम के लाल अधरों के समान सुन्दर लग रहे हैं। उर्मिला कहती है कि हे शरद! तुम्हारा स्वागत है। मैंने बड़े भाग्य से आज । तुम्हारे दर्शन किए। आकाश ने तुम्हारे स्वागत में ओस की बूंदों के रूप में असंख्य मोती न्योछावर किए हैं। लो मेरे ये नेत्र तुम्हारे स्वागत के लिए आँसूरूपी अर्घ्य । लेकर प्रस्तुत हैं।

काव्य सौंदर्य:रस: विप्रलम्भ (वियोग) शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: अपहृति, हेतुत्प्रेक्षा एवं उपमा, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



2.

शिशिर, न फिर गिरि-वन में,
जितना माँगे, पतझड़, दूँगी मैं इस निज नन्दन में,
कितना कम्पन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में।
सखी कह रही, पाण्डुरता का क्या अभाव आनन में?
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस-भाजन में,
तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खं उसको मन में।
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं, अपने इस जीवन में,
तो उत्कण्ठा है, देखू फिर क्या हो भाव-भुवन में।

शब्दार्थ:शिशिर-शीत ऋतु: गिरि -पर्वत; निज- अपना; नन्दन-इन्द्र का उद्यान; पाण्डुरता -पीलापन, आनन-मुख; नयन नीर-नेत्रों का जल, आँसू, मानस भाजन -मनरूपी बर्तन: अकिंचन-निर्धनता; उत्कण्ठ-उत्सुकता, कौतूहल, भाव-भुवन-भावों का संसार।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘गीत’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: विरह अग्नि में जलती हुई उर्मिला शिशिर ऋतु को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे शिशिर! तू पर्वतों तथा वनों में मत घूमा कर, मैं तुझे नन्दनवन के सदृश अपने इस शरीर से ही जितना चाहो पतझड़ अर्थात् पीले मुरझाए हुए पत्ते दे दूँगी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पतझड़ में वृक्ष के सारे पत्ते पीले पड़ कर झड़ने लगते हैं, उसी प्रकार लक्ष्मण से दूर रहने वाली उर्मिला के शरीर के सारे अंग विरह अग्नि से तप्त होकर या पीले होकर अपना अस्तित्व खोने लगे हैं। उर्मिला शिशिर से आगे कहती हैं कि तुझे कितने कम्पन की आवश्यकता है, मैं तुझे अपने ही शरीर से उसकी आपूर्ति कर दूँगी। यहाँ उर्मिला के कहने का अर्थ है कि पति के वियोग के कारण शीत ऋतु में उसका शरीर काँपता रहता है। उर्मिला शिशिर से कह रही हैं कि मेरी सखी मेरे मुख को पीला बताती है। अत: त मेरे मुख से पीलापन ले ले। हे वीर! यदि तू मेरे अश्रू-जल को मनरूपी पात्र में जमा दे तो मैं दीन (गरीब) उसे बड़े ही यत्न से सँजोकर अपने मन में रख लूंगी अर्थात अश्रु-जल को मन-ही-मन में पीकर स्वयं को सँभाले रखेंगी। मेरी हंसी छिन गई है, पर क्या इस जीवन में अब मैं रो भी नहीं सकती। सचमुच यदि ऐसा ही हो यानी मेरा हँसना-रोना दोनों बन्द हो जाएँ तो उस स्थिति में मैं यह जानने के लिए उत्सुक रहूँगी कि आखिर तब मेरे भाव रूपी संसार में शेष क्या रह जाएगा अर्थात हँसी और रुदन के अभाव में मेरे मन में और कौन-से भाग उत्पन्न होंगे।

काव्य सौंदर्य:रस: विप्रलम्भ (वियोग) शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: रूपक, मानवीकरण एवं उपमा, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



3.

मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु, गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नहीं भोगिनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह–हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कन्दर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो।।

शब्दार्थ:अबला बाला असहाय स्त्री; वियोगिनी-विरहिणी; मधु-बसन्त; मीत-मित्र; मदन-कामदेव, पटु-चतुर; कटु-कड़वा; गरल-विष; जहर; परिहारो-त्यागो; भोगिनी-विलासिनी; हर नेत्र-शिवजी के नेत्र, रूप-दर्प सुन्दर रूप का अभिमान; कन्दर्प-कामदेवः वारे-न्योछावर करोः , रति-कामदेव की पत्नी; धारो-धारण करो।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘गीत’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: प्रस्तुत पद्यांश में काम-व्यथित उर्मिला कामदेव से प्रार्थना करती है। कि हे कामदेव! तुम मुझे अपने पुष्पबाणों से घायल मत करो, क्योंकि मैं तो वह अबला युवती हूँ जो विरहिणी है, वियोगिनी है। तुम्हें मुझ पर विचारपूर्वक दया करनी चाहिए। तुम वसन्त के मित्र हो और चतुर हो, इसलिए मुझ पर कामरूपी विष की वर्षा मत करो अर्थात् मेरी स्थिति देखकर मुझे और कष्ट मत दो। तुम्हारे पुष्पबाण के प्रहार से मेरा मन व्याकुल हो जाता है। इसमें तुम्हें भी असफलता ही मिलती है। तुम मुझे विचलित करने के लिए बहुत परिश्रम कर चुके हो, इसलिए अब विश्राम करो और अपनी थकान दूर करो। कहने का भाव यह है कि चाहे तुम मुझे कितना भी दुःख क्यों न दो, मैं भोग-विलास की इच्छा रखने वाली कोई विलासिनी नहीं बन सकती हूँ। यदि तुममें शक्ति है, साहस है, तो शिवनेत्र के समान बाधाओं को भस्म कर देने वाले मेरे इस सिन्दूर बिन्दु की ओर देखो। उर्मिला कहती है कि हे कामदेव! यदि तुम्हें अपने रूप (सौन्दर्य) पर गर्व है, तो तुम अपने इस गर्व को मेरे पति के चरणों पर न्योछावर कर दो अर्थात् सौन्दर्य में तुम मेरे पति के चरणों की धूल के समान हो। यदि तुम्हें इस बात का घमण्ड है कि तुम्हारी स्त्री रति अत्यन्त सुन्दर है, तो तुम मेरे चरणों की धूल को रति के सिर पर रख दो अर्थात तुम मुझे विचलित करने में कभी सफल नहीं हो सकोगे।

काव्य सौंदर्य:रस: विप्रलम्भ (वियोग) शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मुक्त गेय, अलंकार: श्लेष, यमक, रूपक एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: व्यंजना एवं लक्षणा



4.

यही आता है इस मन में,
छोड़ धाम-धन आकर मैं भी रहँ उसी वन में।
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
व्यथा रहे, पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।
हर्ष डूबा हो रोदन में, यह आता है इस मन में।
बीच बीच में उन्हें देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
जब वे निकल जाएँ तब ले, उसी धूल में लोट।।
रहें रत वे निज साधन में, यही आता है इस मन में।
जाती जाती, गाती गाती, कह जाऊँ यह बात
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात।
प्रेम की ही जय जीवन में।
यही आता है इस मन में।

शब्दार्थ:धाम-धन-घरबार और धन-दौलत, व्रत-पर्व, विघ्न-बाधा; व्यथा-दुःख, समाधान हल, निराकरण; हर्ष-खुशी, आनन्द, रोदन रोने की क्रिया, विलाप: झुरमुट-झाड़ियों वाला क्षेत्र; ओट-आड़ जगती-संसार; उत्पात-झगड़ा, संघर्ष; जय-जीत, विजय।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘गीत’ शीर्षक से उद्धृत है।

व्याख्या: वियोगिनी उर्मिला कहती है कि अब मेरा मन घर-परिवार और धन-दौलत में नहीं लगता, मैं इन सबको छोड अपने प्रिय के पास वन में जाकर। रहना चाहती हूँ, किन्तु वहाँ उनके पास जाकर भी मैं उनसे दूर ही रहूँगी ताकि उनके व्रत में बाधा न उत्पन्न हो। इस प्रकार यहाँ उर्मिला के द्वारा वनवासी की। तरह जीवन बिताने की चाह व्यक्त की गई है। वह कहती हैं कि मेरा दुःख अर्थात् विरह की स्थिति यथावत बनी रहे पर साथ-ही-साथ उसका पूर्णत: निदान भी होता रहे। यहाँ कहने का अर्थ है कि उर्मिला शरीर से दूर रहकर भी अपने प्रियतम के दर्शन का सुख भोग सकें। उर्मिला को अपने प्रिय से दूर रहकर उनको न पा सकने के दुःख में रोते रहना स्वीकार है, पर वह उन्हें अपनी आँखों से इतनी दूर जाने नहीं देना चाहती जहाँ से वह उन्हें नजर ही न आएँ। उर्मिला कहती हैं कि वन में रहने के क्रम में मैं बीच-बीच में पेड़-पौधों की आड़ लेकर अपने प्रियतम को देख कर अपनी आँखों की प्यास को तृप्त कर लूँगी और जब वह उस स्थान को छोड़कर चले जाएँगे, तो मैं वहाँ की धूल-मिट्टी में लोट कर उनके साथ होने का सुख प्राप्त करती रहूँगी इससे उनकी साधना भी भंग नहीं होगी और मुझे आत्मिक सुख की प्राप्ति भी होती रहेगी। उर्मिला आगे कहती हैं कि मेरा मन करता है कि मैं जाते-जाते और गाते-गाते यही सन्देशा दे जाऊँ कि इस संसार में धन और वैभव की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना तथा एक-दूसरे को मारना-काटना सर्वथा अनुचित है। मानव-जीवन में सदा से प्रेम की ही जीत होती है।

काव्य सौंदर्य:रस: शान्त, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्धात्मक, छन्द: मालिनी ,अलंकार: विरोधाभास, पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा एवं लक्षणा

( पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)

प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1. तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
नीले वितान के तले दीप बहु जागे।
टकटकी लगाए नयन सुरों के थे वे,
परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे।
उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह-रहकर
करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह-महकर। वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
प्रभु बोले गिरा, गम्भीर नीरनिधि जैसी।


01 प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से अवतरित हैं तथा इसके रचनाकार कौन हैं?

उत्तर: प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘कैकेयी का अनुताप’ नामक कविता से अवतरित हैं तथा इसके रचनाकार द्विवेदी युगीन प्रसिद्ध राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी हैं।

02 प्रस्तुत पद्यांश किस प्रसंग से सम्बन्धित है।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में पंचवटी की प्राकृतिक छटा का मनोहारी वर्णन किया गया है। प्रकृति के सौन्दर्य का यह वर्णन उस क्षण का है, जब यहाँ भारत के साथ अयोध्यावासियों को श्रीराम से भेंट करने हेतु रात्रि-सभा का आयोजन किया गया था।

03 पंचवटी के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।

उत्तर: पंचवटी का प्राकृतिक सौन्दर्य अनुपम था। खिले हुए करौंदे, पुष्पों से भरे हरा बगीचों से रह-रह कर आने वाली मन्द, शीतल व सुगन्धित पवन वहाँ उपस्थित लोगों को पुलकित कर रही थी। वहाँ ऐसी मनोहर चाँदनी छिटक रही थी. जिसका अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। वहाँ पंचवटी की सभा चन्द्रलोक सी प्रतीत हो रही थी।

04 प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि द्वारा किस भाव की अभिव्यक्ति हुई है?

उत्तर: प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि द्वारा रात्रि के समय पंचवटी आश्रम के आस-पास की प्राकृतिक छटा के मनोहारी होने का भाव अभिव्यक्त किया गया है।

05 ‘तदनन्तर’ का सन्धि-विच्छेद करते हुए उसका भेद बताइए।

उत्तर: तदनन्तर तद् + अनन्तर (व्यंजन सन्धि)।



प्रश्न 2. मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु, गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नहीं भोगिनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह–हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कन्दर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो।।


01 वसन्त ऋतु का विकास उर्मिला को कैसा प्रतीत हो रहा है?

उत्तर: वसन्त ऋतु के सुहावने समय में चारों ओर खिले हुए फूल अपने रंग-रूप से अपर्व । मादकता बिखेर रहे हैं, परन्तु उर्मिला को वसन्त ऋतु का विकास और फूलों का रंग-रूप लक्ष्मण के वियोग में अत्यन्त कष्टकारी प्रतीत हो रहा है।

02 प्रस्तुत पद्यांश में उर्मिला ने कामदेव से क्या प्रार्थना की है।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में उर्मिला ने कामदेव से प्रार्थना करते हुए कहा कि तुम मझे अपने पुष्पबाणों से घायल मत करो, क्योंकि मैं तो वह अबला युवती हूँ जो विरहिणी है, वियोगिनी है। तुम्हें मुझ पर विचारपूर्वक दया करनी चाहिए और मुझ विरहिणी को कष्ट नहीं देना चाहिए।

03 ‘नहीं भोगिनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो।’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: उर्मिला को कामदेव ने दुःख रूपी जाल में फँसाने का बहुत की प्रयास किया। उर्मिला ने कामदेव के पुष्पबाण के प्रहार से स्वयं को बहुत विचलित किया, परन्तु वह उनके जाल में फँस नहीं पाई। आशय यह है कि कामदेव चाहे कितना भी दुःख उर्मिला को क्यों न दे दें, परन्तु वह भोग-विलास की इच्छा रखने वाली कोई विलासिनी नहीं बन सकती।

04 उर्मिला द्वारा कामदेव के सौन्दर्य के दर्प को कैसे तोड़ा गया है?

उत्तर: उर्मिला ने कामदेव के सौन्दर्य के दर्प को तोड़ते हुए कामदेव से कहा कि यदि तुम्हें अपने रूप (सौन्दर्य) पर गर्व है, तो तुम अपने इस गर्व को मेरे पति (लक्ष्मण) के चरणों पर न्योछावर कर दो अर्थात सौन्दर्य में तुम मेरे पति के चरणों की धूल के समान हो

05 ‘विकलता’ और ‘विफलता’ दोनों शब्दों से उपसर्ग, मूल शब्द और प्रत्यय छाँटकर लिखिए।

उत्तर: विकलता-वि (उपसर्ग), कल (मूल शब्द), ता (प्रत्यय)
विफलता-वि (उपसर्ग), फल (मूल शब्द), ता (प्रत्यय)







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