पाठ 3 : पवन दूतिका

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अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ


प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार कवियों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय

द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि और लेखक अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का जन्म 1865 ई. में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में निजामाबाद नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम पण्डित भोलासिंह उपाध्याय तथा माता का नाम रुक्मिणी देवी था। स्वाध्याय से इन्होंने हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। वकालत की शिक्षा पूर्ण कर इन्होंने लगभग 20 वर्ष तक कानूनगो के पद पर कार्य किया, किन्तु इनके जीवन का ध्येय अध्यापन था, इसलिए इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अवैतनिक रूप से अध्यापन कार्य किया। यहाँ से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् ये आजमगढ़ में रहकर रचना कर्म से जुड़े रहे। इनकी रचना ‘प्रियप्रवास’ पर इन्हें हिन्दी के सर्वोत्तम पुरस्कार ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ से सम्मानित किया गया। 1947 ई. में इनका देहावसान हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ:- प्रारम्भ में ‘हरिऔध’ जी ब्रजभाषा में काव्य रचना किया करते थे, परन्तु बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से ये खड़ीबोली हिन्दी में काव्य रचना करने लगे। इन्हें हिन्दी साहित्य के तीन युगों (भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, छायावादी यग) में रचना करने का गौरव प्राप्त है। हरिऔध जी के काव्य में लोकमंगल का स्वर मिलता है।



पद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में व्याख्या:


1.

बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली।
आके आँसू दृग-युगल में थे धरा को भिगोते।।
आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गन्ध को ले।
प्रात:वाली सुपवन इसी काल वातयनों से।।
सन्तापों को विपुल बढ़ता देख के दुःखिता हो।
धीरे बोली स-दुख उससे श्रीमती राधिका यो।।
प्यारी प्रात: पवन इतना क्यों मुझे है सताती।
क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से।।

शब्दार्थ:खिन्ना -अप्रसन्न; यक -एक; गेह -घर; दृग-युगल -दोनों नेत्र सदन -घर,भवन पुष्प-सद्गन्ध-फूल की खुशबू, सुपवन -हवा; वातयन खिड़की, झरोखा; सन्ताप -दुःख, विपुल-अधिक, दुःखिता-व्यथित; पवन -हवा कलुषित -दूषित;काल -समय क्रूरता -कठोरता।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: कवि कहता है कि एक दिन जब राधा उदास, खिन्न मन के साथ घर में अकेली बैठी हुई थी और उसकी दोनों आँखों से आँसू बहकर ज़मीन पर गिर रहे थे, तभी प्रातःकालीन सुगन्धित पवन रोशनदानों से होकर घर के अन्दर प्रवेश करती है, किन्तु इससे राधा का दु:ख और अधिक बढ़ गया और वह दुःखी होकर पवन को फटकार लगाते हुए बोली कि हे प्रातःकालीन पवन! तू मुझे और क्यों सता रही है? क्या तू भी समय की कठोरता से दूषित हो गई है? क्या तुझ पर भी समय की क्रूरता का प्रभाव पड़ गया है? कहने का अभिप्राय यह है कि दुःखी राधा को सुगन्धित पवन का झोंका और भी दु:खी कर रहा है। इसे वह पवन की क्रूरता मान रही हैं और पवन से पूछ रही हैं कि आखिर वह क्रूर क्यों हो गई है?

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा



2.

मेरे प्यार नव जलद से कंज से नेत्रवाले।
जाके आए न मधुबन से औ न भेजा सँदेसा।।
मैं रो रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब दु:ख कथा श्याम को तू सुना दे।
ज्यों ही मेरा भवन तज तू अल्प आगे बढ़ेगी।
शोभावाली सुखद कितनी मंजु कँजें मिलेंगी।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेंगी तुझे वे।
तो भी मेरा दुःख लख वहाँ जा न विश्राम लेना।।

शब्दार्थ:नव-नया; जलद-बादल; कंज-कमल; मधुबन-ब्रज का एक प्राचीन वन; प्रिय-विरह-प्रेमी से वियोग; बावली-पागल; तज-छोड़कर; अल्प-थोड़ा; मंजु-सुन्दर; कुंजे-लता-झाड़ियों से घिरा क्षेत्र; मृदुल-मधुर, मीठा; लख-जानकर, देखकर।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: पवन से अपनी विरह-व्यथा बताती हुई राधा कहती हैं कि नवीन बादल से शोभायमान एवं कमल समान सुन्दर नेत्रों वाले मेरे प्रियतम कृष्ण ब्रज के इस वन (मधुबन) को छोड़कर जाने के पश्चात् फिर यहाँ नहीं आए और न तो उन्होंने मेरे लिए कोई सन्देश ही भेजा। उनसे बिछड़ कर मेरी दशा अत्यन्त दयनीय हो गई है। मैं रोते-रोते पागल हो रही हैं। अतः तुम जाकर मेरे इन दःखों । से उन्हें अवगत कराना। राधा पवन से रास्ते में आने वाले विभिन्न प्राकृतिक सौन्दर्य से सचेत रहने के। लिए कहते हुए आगे कहती हैं कि मेरे घर से कुछ ही दूर जाने के बाद तुम्हें। अत्यन्त मनोहारी और सुख प्रदान करने वाली कुंजे मिलेंगी। वहाँ की शीतल छाया। एवं जल-प्रवाह व पक्षियों के कलरव की मधुर ध्वनियाँ तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करेंगी, किन्तु मेरे दुःख को ध्यान में रखकर तुम वहाँ विश्राम न करने लगना।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, अन्त्यानुप्रास एवं मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

3.

थोड़ा आगे सरस रव का धाम सत्पुष्पवाला।
अच्छे-अच्छे बहु द्रुम लतावान सौन्दर्यशाली।।
वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा।
आना जाना इस विपिन से मुह्यमाना न होना।।
जाते जाते अगर पथ में क्लान्त कोई दिखावे।
तो जा के सन्निकट उसकी क्लान्तियों को मिटाना।।
धीरे-धीरे परस करके गात उत्ताप खोना।
सद्गन्धों से श्रमित जन को हर्षितों सा बनाना।।

शब्दार्थ:सरस-मधुर; रव-शब्द, आवाज; धाम-घर, स्थान; सत्पुष्पवाला- सैकड़ों फूलों वाला; दुम-वृक्ष, पेड़, वृन्दाविपिन-वृन्दावन; मुह्यमाना-मोहित; पथ-रास्ता, मार्ग: क्लान्त-थका हुआ; सन्निकट-अति पास क्लान्तियों- थकावटों; परस-स्पर्श: गात-शरीर; उत्ताप-गर्मी, कष्ट; सद्गन्ध-सुगन्ध, खुशबू; अमित-थके हुए; जन-लोगः हर्षित-प्रसन्न, खुश।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा मथुरा जा रही पवन-दूती से कहती हैं कि यहाँ से तनिक आगे जाने पर तुम्ह अत्यन्त रमणीय स्थल वृन्दावन मिलेगा, सैकड़ों पुष्पों वाले उस धाम में पक्षियों की मधुर ध्वनियाँ, तरह-तरह के सुन्दर वृक्ष और लताएँ तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करेंगी, किन्तु आने-जाने के क्रम में तुम उस वन से मोहित मत होना। राधा, दूती से आगे कहती हैं कि मार्ग में तुम्हें कोई थका-हारा व्यक्ति मिल जाए तो तुम उसके पास चले जाना। फिर धीरे-धीरे उसके शरीर का स्पर्श कर उसके दुःख-सन्ताप को मिटा देना। साथ ही उसके चारों और अपनी सुगन्ध बिखेर कर उस थके व्यक्ति को प्रफुल्लित कर देना।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

4.

लज्जाशीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आए।
होने देना विकृत-वसना तो न तू सुन्दरी को।
जो थोड़ी भी श्रमित वह हो, गोद ले श्रान्ति खोना।
होठों की औ कमल-मख की म्लानताएँ मिटाना।।
कोई क्लान्ता कृषक-ललना खेत में जो दिखावे।
धीरे-धीरे परस उसकी क्लान्तियों को मिटाना।।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला।
छाया द्वारा सुखित करना तप्त भूतांगना को।।

शब्दार्थ:पथिक-मुसाफिर, यात्री; दृष्टि आए-दिखाई दे; विकृत-वसना-वस्त्र को अस्त-व्यस्त करना अथवा उड़ाना; श्रान्ति-थकान; म्लानता-मलिनता; कृषक ललना-किसान स्त्री; व्योम-आकाश; तप्त-दुःखी, विकल; भूतांगना-धरती।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: कृष्ण की विरह-अग्नि में जलती हुई राधा पवन-दूतिका को समझाती हुई कहती है, हे पवन! यदि तुझे मार्ग में कोई लाजवन्ती स्त्री दिखाई। दे तो तू उसके वस्त्रों को मत उड़ाना। यदि वह थोड़ी भी थकी हुई लगे तो उसे अपनी गोद में लेकर उसकी थकान मिटा देना, साथ ही उसके होंठों और कमल सदृश-दिखने वाले उसके मुख की मलिनता को हर लेना। । राधा पवन से यह भी कहती हैं कि यदि तम्हें मार्ग में खेत में काम करने वाली कोई थकी हुई स्त्री दिखे तो तुम धीरे-धीरे उसके पास पहुँचकर अपने स्पर्श से उसकी थकान मिटा देना। साथ ही आकाश में बादल के दिखाई देने पर उसे पास लाकर उसकी छाया के द्वारा उस थकी हुई स्त्री को शीतलता प्रदान करना, उसे आराम पहुँचाना।

काव्य सौंदर्य:यहाँ राधा की लोकमंगल की भावना मुखरित हुयी है , रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

5.

जाते-जाते पहुँच मथुरा-धाम में उत्सुका हो।
न्यारी शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना।
तू होवेगी चकित लख के मेरु से मन्दिरों को।
आभावाले कलश जिनके दूसरे अर्क से हैं।
देखे पूजा समय मथुरा मन्दिरों मध्य जाना।।
नाना वाद्यों मधुर स्वर की मुग्धता को बढ़ाना।
किंवा लेके रुचिर तरु के शब्दकारी फलों को।
धीरे-धीरे मधुर रव से मुग्ध हो-हो बजाना।

शब्दार्थ:उत्सुका अत्यधिक इच्छुक; उत्साहित; न्यारी-सुन्दर; वर-श्रेष्ठ, मेरु-सुमेरु पर्वत, पर्वत समान ऊँचे आभावाले प्रकाशित, चमकीले; अर्क-सूर्य; नाना अनेक; किंवा अथवा; रुचिर-मनोहर, अच्छा; तरु-वृक्ष, पेड़, शब्दकारी-आवाज करने वाले।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: कृष्ण के पास पवन को भेजने के क्रम में राधा उससे कहती हैं। कि मथुरा नगरी की शोभा अद्भुत है। वहाँ पहुँचकर तुम स्वयं ही उसकी सुन्दरता को देखने के लिए लालायित हो जाओगी, किन्तु ऐसे में तुम अपनी उत्सुकता पर रोक मत लगाना, अपितु नगरी की अनुपम शोभा को देखकर उस पर मुग्ध होना। तुम सूर्य के समान चमकते हुए कलशों से युक्त सुमेरु पर्वत जैसे ऊँचे-ऊँचे भव्य मन्दिरों को देख विस्मित रह जाओगे। राधा पवन से कहती हैं कि जब मथुरा के मन्दिरों में पूजा अर्चना की जा रही हो, उस समय तुम वहाँ जाकर वहाँ बज रहे वाद्यों की आवाज में आवाज मिलाकर उनकी मधुरता को बढ़ाना अन्यथा अपनी रुचि से किसी वृक्ष के शब्द रूपी फलों के स्वरों को सुनकर मुग्ध हो अपने मधुर स्वर से उनका साथ देना।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

6.

तू देखेगी जलद तन को जा वहीं तद्गता हो।
होंगे लोने नयन उनके ज्योति-उत्कीर्णकारी।
मुद्रा होगी वर वदन की मूर्ति-सी सौम्यता की।
सीधे-सीधे वचन उनके सिक्त होंगे सुधा से।।
नीले फूले कमल दल-सी गात की श्यामता है।
पीला प्यारा वसन कटि में पैन्हते हैं फबीला।
छूटी काली अलक मुख की कान्ति को है बढ़ाती।
सदवस्त्रों में नवल तन की फूटती-सी प्रभा है।

शब्दार्थ:जलद तन-बादल के समान शरीर वाले अर्थात श्रीकृष्ण: तदगता-तल्लीन; लोने-सलोने, सुन्दर; नयन-नेत्र, आँख; ज्योति उत्कीर्णकारी-प्रकाश बिखेरने वाले; मुद्रा-भाव-भंगिमा; वर वदन-सुन्दर मुख; । सौम्यता-सुन्दर, कान्तिमान; सिक्त-सीचे हुए; सुधा-अमृत; श्यामता-साँवलापन; कटि-कमर; फबीला-सुन्दर दिखने वाला; अलक-केश, बाल; सदवस्त्र-सुन्दर कपड़े; नवल-नया प्रभा-प्रकाश, दीप्ति।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा पवन से कहती हैं कि मथुरा जाने पर तुम बादलों जैसे श्यामवर्ण वाले कृष्ण को उन्हीं में तल्लीन होकर देखोगी। उनकी सन्दर आँखों से प्रकाश निकल रहा होगा। उनके सुन्दर, सौम्य मुख को देख ऐसा प्रतीत होगा जैसे । वह कोई मनोहर सौम्य मूर्ति हो, तुम्हें उनके बोले हुए शब्द अमृत से सींचे हुए-स। प्रतीत होंगे। हे दूती! उनका शरीर नीले खिले हुए कमल के समूह के सदृश साँवला और । मनोरम है। वे कमर पर पीताम्बर अर्थात् पीला वस्त्र पहनते हैं, जो अति शोभायमान लगता है। उनके बालों से लटकी एक लट उनके मुख की शोभा और । बढ़ा देती है। सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए कृष्ण के सौम्य शरीर से प्रकाश की किरणें-सी निकलती रहती है।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

7.

साँचे ढाला सकल वपु है दिव्य सौन्दर्यशाली।
सत्पुष्पों-सी सुरभि उसकी प्राण-सम्पोषिका है।
दोनों कन्धे वृषभ-वर-से हैं बड़े ही सजीले।
लम्बी बाँहें कलभ-कर-सी शक्ति की पेटिका हैं।
राजाओं-सा शिर पर लसा दिव्य आपीड़ होगा।।
शोभा होगी उभय श्रुति में स्वर्ण के कुण्डलों की।
नाना रत्नाकलित भुज में मंजु केयूर होंगे।
मोती माला लसित उनका कम्बु-सा कण्ठ होगा।

शब्दार्थ:सकल सम्पूर्ण; वपु-शरीर; सरभि सुगन्ध; सम्पोषिका-पोषण करने वाली;वषभ-वर-से-साँड़ के समान श्रेष्ठ, कलभ-कर-सी-हाथी की सूंड जैसी; पेटिका-पिटारी; लसा-शोभित; आपीड़-मुकुट; उभय श्रुति दोनों कान; नाना अनेक, विभिन्न; भजभुजा, हाथ; । केयूर भुजबन्द; कम्बु-शंख।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा पवन से कृष्ण की शोभा का गुणगान करती हई कहती हैं। कि उनका सम्पूर्ण शरीर साँचे में ढला हुआ अर्थात् सुडौल है, जिसे देख अलौकिक सौन्दर्य के दर्शन का आभास होता है। उनके शरीर से निकलने वाली सुगन्धित पुष्पों के सदृश सुगन्ध प्राणों का पोषण करने वाली अर्थात् मन को आह्लादित कर देने वाली है। उनके कन्धों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है। जैसे वे उत्तम कोटि के साँड़ के कन्धे हों। यहाँ कहने का भाव यह है कि। श्रीकृष्ण के कन्धे अति बलिष्ठ हैं। राधा आगे कहती हैं कि कृष्ण की भुजाएँ हाथी की सूड के सदृश बल की पिटारी अर्थात् अति शक्तिशाली है। उनके मस्तक पर राजाओं के समान अपूर्व सौन्दर्य से युक्त मुकुट विराजमान होगा। उनके दोनों कान मनोहर स्वर्ण-कुण्डलों से सुशोभित होंगे, वे अपनी दोनों भुजाओं में रत्न-जड़ित भुजबन्द धारण किए हुए होंगे। शंख जैसी सुन्दर और सुडौल दिखने वाली उनकी गर्दन में मोतियों की माला होगी। ।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

8.

तेरे में है न यह गुण जो तू व्यथाएँ सुनाए।
व्यापारों को प्रखर मति औ युक्तियों से चलाना।
बैठे जो हों निज सदन में मेघ-सी कान्तिवाले।
तो चित्रों को इस भवन के ध्यान से देख जाना।
जो चित्रों में विरह-विधुरा का मिले चित्र कोई।
तो जा जाके निकट उसको भाव से यों हिलाना।
प्यारे हो के चकित जिससे चित्र की ओर देखें।
आशा है यों सुरति उनको हो सकेगी हमारी।।

शब्दार्थ:व्यथा-पीड़ा; प्रखर-तेज, तीव्र; मति-बुद्धि; युक्ति-यत्न, उपाय; सदन-घर; कान्तिवाले-शोभावाले; विरह-विधरा-वियोग से दुःखी; सुरति-स्मृति।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा पवन से कहती हैं कि तुम कृष्ण के सम्मुख मेरे दुःखों को वाणी से कह पाने में असमर्थ हो, इस कारण मेरी व्यथा और सन्देश को उन तक पहुँचाने में अपनी तीव्र बुद्धि और विवेक का प्रयोग करते हुए उचित क्रिया-व्यापारों के माध्यम से अपना कार्य पूर्ण करना। यदि मथुरा पहुँचने पर तुम्हें मेरे प्रियतम जो बादलों की कान्ति के सदृश प्रतीत होते हैं, अपने घर में बैठे मिले, तब तुम भवन के सारे चित्रों को ध्यानपूर्वक देखना। राधा आगे कहती हैं कि यदि उन चित्रों में वियोग से व्यथित किसी स्त्री का चित्र दिखे तो तुम उसके निकट पहुँचकर उसे इस भाव से हिलाना कि मेरे प्रिय विस्मय के साथ उसे देखने लगें। मुह गता है कि उस विरहिणी का चित्र देख उन्हें मेरी याद आने लगेगी अर्थात् उन्हें आभास होने लगेगा कि मैं भी विरह-अग्नि में उसी प्रकार जल रही हूँ, जिस प्रकार इस चित्र में यह स्त्री ।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

9.

जो कोई भी इस सदन में चित्र उद्यान का हो।
औ हों प्राणी विपुल उसमें घूमते बावले से।
तो जाके सन्निकट उसके औ हिला के उसे भी।
देवात्मा को सुरति ब्रज के व्याकुलों की कराना।
कोई प्यारा कुसुम कुम्हला गेह में जो पड़ा हो।
तो प्यारे के चरण पर ला डाल देना उसी को।
यों देना ऐ पवन बतला फूल-सी एक बाला।
म्लाना हो हो कमल-पग को चूमना चाहती है।

शब्दार्थ:उद्यान बगीचा; विपल-बहुत से; बावला-पागल; सन्निकट- पास, नजदीक; देवात्मा श्रीकृष्ण; कसम फूल; कुम्हला-प्रभाहीन; गेह-घर । चरण-पैर; बाला बालिका; म्लाना उदास; कमल-पग-कमल रूपी पैर

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा पवन से कहती हैं कि यदि तुम्हें कृष्ण के घर में ऐसा कोई । चित्र दिखे, जिसमें अनेक जीव-जन्तु बगीचे में पागलों की तरह घूम रहे हों तो उसके निकट जाकर तुम उसे भी हिला देना ताकि कृष्ण को उसे देख विरह में व्याकुल ब्रजवासियों की याद आ जाए। यदि कृष्ण के घर में तुम्हें कोई । सुन्दर-सा फूल मुरझाया हुआ दिखे तो उसे उड़ाकर उनके चरणों पर डाल देना, ताकि उन्हें यह आभास हो सके कि कुम्हलाए हुए फूल-सी उदास कोई । बालिका व्याकुल होकर उनके कमल चरणों को चूमना चाहती है।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

10.

जो प्यारे मंजु उपवन या वाटिका में खड़े हों।
छिद्रों में जा क्वणित करना वेण-सा कीचकों को।
यों होवेगी सुरति उनको सर्व गोपाँगना की।
जो हैं वंशी श्रवण-रुचि से दीर्घ उत्कण्ठ होती।
ला के फूले कमलदल को श्याम के सामने ही।
थोड़ा-थोड़ा विपुल जल में व्यग्र हो-हो डुबाना।
यों देना ऐ भगिनी जतला एक अम्भोजनेत्रा।
आँखों को ही विरह-विधुरा वारि में बोरती है।।

शब्दार्थ:वाटिका-बगीचा, क्वणित-बजाना; वेण-बाँसुरी; कीचक-बाँस; गोपाँगना-गोपिकाओं; श्रवण-सुनना; दीर्घ उत्कण्ठ-अति व्याकुल होकर; व्यग्र-व्याकुल; भगिनि-बहन; जतलाना-बताना; अम्भोजनेत्रा-कमल के समान नेत्र वाली; वारि-जल; बोरना-डुबोना।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा पवन को कहती हैं कि यदि तुम्हें कृष्ण किसी उपवन अथवा बगीचे में खड़े नजर आएँ तो तुम बाँसों के छिद्रों में पहुँचकर उन्हें बाँसुरी के सदृश बजाना, ताकि उन्हें उनकी बाँसुरी सुनने के लिए व्याकुल होती गोपियों की याद आ जाए। राधा आगे कहती हैं कि मेरे प्रियतम के समक्ष ही खिले हुए कमल की। पंखुड़ियों को व्याकुल होकर थोड़ा-थोड़ा जल में डुबोना, ताकि ऐ बहन! यह देख कृष्ण को इसका आभास हो जाए कि कमल नेत्रों वाली राधा वियोग में व्यथित होकर अपने नेत्रों को आँसुओं में डुबोए रखती है अर्थात् दिन-रात रोती. रहती हैं।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

11.

धीरे लाना वहन कर के नीप का पुष्प कोई।
औ प्यारे के चपल दृग के सामने डाल देना।
ऐसे देना प्रकट दिखला नित्य आशंकिता हो।
कैसी होती विरह वश मैं नित्य रोमांचिता हूँ।।
बैठ नीचे जिस विटप के श्याम होवें उसी का।
कोई पत्ता निकट उनके नेत्र के ले हिलाना।।
यों प्यारे को विदित करना चातुरी से दिखाना।
मेरे चिन्ता-विजित चित का क्लान्त हो काँप जाना।

शब्दार्थ:वहन-उठाना; नीप-कदम्ब; चपल-चंचलदृग-आँख; नित्य-सदा; । आशंकिता-आशाओं, सन्देहों से परिपूर्ण: विरह वश-वियोग के अधीन: विटप-पेड़; विदित-ज्ञात, बताना; चातुरी-चतुराई: चिन्ता-विजित-चिन्ता द्वारा जीते गए; क्लान्त-थका हुआ, मुरझाया।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा पवन दूती से कहती हैं हे पवन! मेरे प्रियतम (कृष्ण) की चंचल आँखों के आगे धीरे से कदम्ब का फूल रख देना, जिससे यह प्रकट हो सके कि मैं उनके वियोग में प्रतिदिन किस प्रकार शंकाओं से घिरी रहती हूँ और मिलन की आस में कदम्ब के फूल जैसी पुन:-पुन: रोमांचित हो उठती हूँ। हे दूतिका! कृष्ण जिस पेड़ के नीचे बैठे हों, तुम उसी का पत्ता उनकी आँख के समक्ष लाकर हिलाना। पत्ते को चतुराई पूर्वक हिलाकर तुम मेरे प्रियतम को इस बात से अवगत करा देना कि चिन्ता ने मेरे हृदय पर विजय पाकर मुझे किस प्रकार थका दिया है अर्थात् प्रिय के वियोग में वह प्रत्येक क्षण उन्हीं के विषय में चिन्तित रहती है।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

12.

सूखी जाती मलिन लतिका जो धरा में पड़ी हो।
तो पाँवों के निकट उसको श्याम के ला गिराना।
यों सीधे से प्रकट करना प्रीति से वंचिता हो।
मेरा होना अति मलिन औ सूखते नित्य जाना।
कोई पत्ता नवल तरु का पीत जो हो रहा हो।
तो प्यारे के दुग युगल के सामने ला उसे ही।।
धीरे-धीरे सँभल रखना और उन्हें यों बताना।।
पीला होना प्रबल दुःख से प्रोषिता-सा हमारा।।

शब्दार्थ:मलिन -उदास; लतिका-लता, बेल,धरा-धरती;प्रीति -प्रेम; वंचिता -अलग; नित्य -सदा; नवल तरु-नया पेड़,पीत -पीला; दृग युगल – दोनों आँखें;प्रोषिता -पति से बिछुड़ी हुई।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: राधा पवन से कहती है कि यदि मथुरा की भूमि पर तुम्हें कहीं मुरझाई हुई लता दिखाई दे तो उसे कृष्ण के पैरों के पास ले जाकर गिरा देना। इस प्रकार, उनके समक्ष स्पष्ट रूप से यह प्रकट कर देना कि प्रेम-विहीन रहकर मैं भी उसी लतिका की तरह मुरझाकर सदा सखते जा रही हैं। यदि नए पेड़ के पीले पड़ गए पत्ते पर तुम्हारी दृष्टि पड़े तो तुम हमारे प्रियतम की आँखों के आगे उसे धीरे से रख देना और उन्हें बताना कि पति से बिछड़ी हुई स्त्री के समान मैं भी नित्य पीली पड़ती जा रही हूँ

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

13.

यों प्यारे को विदित करके सर्व मेरी व्यथाएँ।
धीरे-धीरे वहन कर के पाँव की धूलि लाना।
थोड़ी-सी भी चरण-रज जो ला न देगी हमें तू।
हा ! कैसे तो व्यथित चित को बोध में दे सकूँगी।
पूरी होवें न यदि तुझसे अन्य बातें हमारी।
तो तू मेरी विनय इतनी मान ले औ चली जा।
छु के प्यारे कमल-पग को प्यार के साथ आ जा।
जी जाऊँगी हृदयतल में मैं तझी को लगाके।।

शब्दार्थ:विदित -अवगत कराना; सर्व-सभी; धूलि-धूल; चरण-रज-पैर की धूल व्यथित -दुखी; चित को बोध -मन को समझाना; विनय -विनती; कमल-पग -कमलरूपी पैर।

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ में संकलित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘पवन-दूतिका’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

व्याख्या: कृष्ण के वियोग में व्यथित राधा, पवन-दूतिका से कहती हैं कि मेरे द्वारा बताए गए उपायों को अपनाकर तुम कृष्ण के समक्ष मेरी सारी व्यथाएँ रखना और आते हुए उनके पैरों की धूल ले आना, क्योंकि उसके बिना मैं अपने दुःखी मन को समझा नहीं सकूँगी। राधा आगे कहती है कि यदि तुम मेरे द्वारा समझाए गए कार्यों को पूर्ण करने में सक्षम न हो सको, तो मेरी बस एक विनती मान कर तुम उनके कमल रूपी चरणों को प्रेमपूर्वक स्पर्श करके चली आना। मैं तुम्हें ही हृदय से लगाकर स्वयं में नवजीवन का संचार करूँगी अर्थात् स्वयं को जीवित रख सकूँगी।

काव्य सौंदर्य:रस: वियोग शृंगार, भाषा: खड़ीबोली, शैली: प्रबन्ध, छन्द: मन्दाक्रान्ता, अलंकार: अनुप्रास तथा मानवीकरण, गुण: प्रसाद, शब्द शक्ति: अभिधा

( पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)

प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1. बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली।
आके आँसू दृग-युगल में थे धरा को भिगोते।।
आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गन्ध को ले।
प्रात:वाली सुपवन इसी काल वातयनों से।।
सन्तापों को विपुल बढ़ता देख के दुःखिता हो।
धीरे बोली स-दुख उससे श्रीमती राधिका यो।।
प्यारी प्रात: पवन इतना क्यों मुझे है सताती।
क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से।।


01 पप्रस्तुत पद्यांश में कवि ने राधा की किस स्थिति का वर्णन किया है ?

उत्तर: पप्रस्तुत पद्यांश में कवि ने विरहावस्था के कारण दुःखी नायिका का वर्णन किया है। जिसके नयनों से अशुओं की धारा बह रही है तथा मन को हर्षित एवं आनन्दित करने वाली प्रातःकालीन पवन भी नायिका को दुःखी करती है। नायिका की इसी स्थिति का वर्णन कवि ने किया है।

02 नायिका ने पवन को क्रूर क्यों कहा?

उत्तर: नायिका का मन खिन्न एवं उदास था। उसके नयन अश्रुओं से भरे हुए थे। नायिका की इस दैन्य दशा में प्रातःकालीन पवन जब सभी में उमंग एवं उत्साह का संचार कर रही थी, तब वह नायिका के लिए हदय विदारक बनकर उसके दुःख को बढ़ा रही थी, इसलिए नायिका ने उसे क्रूर कहा।

03 नायिका ने पवन से क्या कहा?

उत्तर: नायिका ने पवन से कहा कि वह इतनी क्रूर, निर्दयी व उसकी पीड़ा को बढ़ाने वाली क्यों बनी हुई है? क्या वह भी उसी के समान किसी पीड़ा से व्यथित है।

04 प्रस्तुत पद्यांश की रस योजना पर प्रकाश डालिए।

उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में वियोग शृंगार रस है। इस पद्यांश में कवि ने नायिका की विरहावस्था का वर्णन किया है।

05 ‘सद्गन्ध’ व ‘कर’ शब्दों के विपरीतार्थी लिखिए।

उत्तर: सद्गन्ध -दुर्गन्ध, क्रूर - दयालु







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