प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।
जीवन परिचय
प्रसिद्ध विचारक, उपन्यासकार, कथाकार और निबन्धकार जैनेन्द्र कुमार का जन्म 1905 ई. में जिला अलीगढ़ के कौड़ियागंज नामक कस्बे में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री प्यारेलाल और माता का नाम श्रीमती रामादेवी था। जैनेन्द्र जी के जन्म के दो वर्ष पश्चात् ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। माता एवं मामा ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘ऋषि ब्रह्मचार्याश्रम’ जैन गुरुकुल, हस्तिनापुर में हुई। इनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ। आरम्भ में इनका नाम आनन्दीलाल था, किन्तु जब जैन गुरुकुल में अध्ययन के लिए इनका नाम लिखवाया गया, तब इनका नाम जैनेन्द्र कुमार रख दिया गया। 1912 ई. में इन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। 1919 ई. में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की। इनकी उच्च शिक्षा ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ में हुई। 1921 ई. में इन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और असहयोग आन्दोलन में सक्रिय हो गए। 1921 ई. से 1923 ई. के बीच जैनेन्द्र जी ने अपनी माता जी की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली। 1923 ई. में ये नागपुर चले गए और वहाँ राजनैतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे। उसी वर्ष इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन माह के बाद छोड़ा गया। दिल्ली लौटने पर इन्होंने व्यापार से स्वयं को अलग कर लिया और जीविकोपार्जन के लिए कलकत्ता (कोलकाता) चले गए। वहाँ से इन्हें निराश लौटना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लेखन-कार्य आरम्भ किया। इनकी पहली कहानी 1928 ई. में ‘खेल’ शीर्षक से “विशाल भारत’ में प्रकाशित हुई। 1929 ई. में इनका पहला उपन्यास ‘परख’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिस पर ‘हिन्दुस्तानी अकादमी’ ने पाँच सौ रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। 24 दिसम्बर, 1988 को इस महान् साहित्यकार का स्वर्गवास हो गया।
साहित्यिक गतिविधियाँ:- जैनेन्द्र कुमार जी का साहित्य-सेवा क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत है। मौलिक कथाकार के रूप में ये जितने अधिक निखरे हैं, उतने ही निबन्धकार और विचारक के रूप में भी इन्होंने अपनी प्रतिभा का अद्भुत परिचय दिया है।
कृतियाँ:- जैनेन्द्र जी मुख्य रूप से कथाकार हैं, किन्तु इन्होंने निबन्ध के क्षेत्र में भी यश अर्जित किया है। उपन्यास, कहानी और निबन्ध के क्षेत्रों में इन्होंने जिससाहित्य का निर्माण किया है, वह विचार, भाषा और शैली की दृष्टि से अनुपम है। इनकी कृतियों का विवरण इस प्रकार है .. उपन्यास- परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, विवर्त, सुखदा, व्यतीत, जयवर्धन, मुक्तिबोध। कहानी-संकलन फाँसी, जयसन्धि, वातायन, नीलम देश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़ियाँ, पाजेब। निबन्ध-संग्रह प्रस्तुत-प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय । और प्रेय, मन्थन, सोच-विचार, काम, प्रेम और परिवार। संस्मरण ये और वे। अनुवाद मन्दाकिनी (नाटक), पाप और प्रकाश (नाटक), प्रेम में भगवान (कहानी)।
भाग्य विधाता का दूसरा नाम
लेखक ने भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि भाग्य और पुरुषार्थ अलग समझे जाते हैं, परन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। भाग्योदय शब्द में भाग्य को प्रधानता दी जाती है, स्वयं को नहीं, जबकि पुरुषार्थ में स्वयं को प्रधानता दी जाती है। इसलिए भाग्योदय पुरुषार्थ से स्वतन्त्र तत्त्व है। लेखक के अनुसार भाग्य, विधाता का ही दूसरा नाम है। जिस प्रकार ईश्वर सर्वकालिक और शाश्वत है, उसी प्रकार भाग्य भी सर्वकालिक और शाश्वत होता है। भाग्य का उदय हमारी (मनुष्य की) अपनी अपेक्षा (इच्छा) से होता है। भाग्योदय भी सूर्योदय की भाँति होता है। सूर्य का उदय नहीं होता। वह तो अपने स्थान पर स्थिर रहता है, पृथ्वी ही उसके आस-पास चक्कर लगाती है। पृथ्वी का मुँह जिस समय सूरज की ओर हो, वही समय उसके लिए सूर्योदय होता है। इसी प्रकार, मनुष्य को निरन्तर कर्म करते हुए स्वयं को भाग्य के सम्मुख ले जाना चाहिए, क्योंकि भाग्योदय के लिए कर्म करना आवश्यक है। लेखक का मानना है कि दुःख भगवान का वरदान है, क्योकि दुःख ही व्यक्ति को ईश्वर के निकट लाता है। दुःख में व्यक्ति कुछ क्षण के लिए अपने अहं भाव से मुक्त हो जाता है। इस अवस्था में ही उसे भगवत् कृपा की प्राप्ति होती है। विधाता की कृपा को पहचानना ही भाग्योदय है। मनुष्य का सारा पुरुषार्थ विधाता की कृपा प्राप्त करने तथा उसे पहचानने में ही है। विधाता की कृपा प्राप्त होते ही मनुष्य के अन्दर जो अहंकार का भाव विद्यमान होता है, वह मिट जाता है और उसका भाग्योदय हो जाता है।
अहं से विमुक्त होकर, भाग्य से संयुक्त होना
लेखक का मानना है कि जो लोग व्यर्थ प्रयास करते हैं तथा सफलता प्राप्त किए बिना ही रह जाते हैं, वह भाग्य को दोष देते हैं। दूसरी ओर कर्म में एक नशा होता है। कर्म का नशा चढ़ते ही मनुष्य भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है। लेखक का मानना है कि पुरुषार्थ का अर्थ-पशु चेष्टा से भिन्न एवं श्रेष्ठ है। पुरुषार्थ केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है और न ही वह क्रिया का वेग एवं कौशल है। पुरुष का भाग्य देवताओं को भी पता नहीं होता है,क्योंकि पुरुष का भाग्य तो उसके पुरुषार्थ से निर्धारित होता है। लेखक का मानना है कि पुरुष अपने भाग्य से तभी जुड़ता है, जब वह अपने अहं को त्याग देता है। लेखक के अनुसार, अकर्म का आशय सही अर्थों में निम्न स्तर का कर्म है। अकर्म का अर्थ ‘कर्म नहीं’ से नहीं लेना चाहिए। इसे ‘कर्म के अभाव’ से न जोड़ते हुए कर्तव्य के क्षय यानी कर्त्तव्य की स्थिति में पतन, किए जाने वाले कर्म में गिरावट, उसमें क्षय या पतन से सम्बन्धित माना है। वास्तव में व्यक्ति के अन्दर मौजूद अहं भाव ही इस अकर्म के लिए उत्तरदायी होता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति अपने अहं को समाप्त करे, जिससे उसके कर्त्तव्य के स्तर में सकारात्मक परिवर्तन आए।
भाग्य की प्रवृत्ति व निवृत्ति का चक्र
लेखक का मानना है कि जब मनुष्य भाग्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होकर पुरुषार्थ करता है, तो उसका पुरुषार्थ फल प्राप्ति की इच्छा से रहित हो जाता है और तब वह दिन-प्रतिदिन अधिक शक्तिशाली एवं बन्धन-विहीन होता जाता है। लेखक का मानना है कि केवल पुरुषार्थ को मान्यता देकर भाग्य की अवहेलना करने का आशय अपनी शक्ति के अहंकार में डूबकर अपने अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण सृष्टि को नकारना है। मनुष्य का अस्तित्व इस सृष्टि में नगण्य है। वह कुछ वर्षों का जीवन व्यतीत कर काल का ग्रास बन जाता है, परन्तु सृष्टि तब भी चलती रहती है। मनुष्य प्राय: भाग्य की प्रतीक्षा में स्वयं को कोसा करता है, क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि सामने आई स्थिति भी उसी (भाग्य) के प्रकाश से प्रकाशित होती है। उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति (सांसारिक सुखों से मुक्ति) चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। इस संसार को कभी वह प्रेम भाव से चाहता है तो कभी दूसरे ही क्षण उसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाता है और वह विनाश चाहने लगता है। प्रेम और घृणा की भावनाओं में फंस कर वह परेशान हो जाता है तथा उसके हाथ कुछ नहीं लगता। ऐसी अवस्था में ही जब वह अपने भाग्य के प्रति सम्मान भाव तथा कर्तव्यों का पूर्ण रूप से निर्वाह करते हुए पुरुषार्थ करेगा तो वही उसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा। वस्तुत: भाग्य एव पुरुषार्थ दोनों का संयोग ही मनष्य को सफलता की ऊँचाइयों तक पहुंचाने में सहायक होता है।
( गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)
प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।
प्रश्न 1. भाग्य को भी मैं इसी तरह मानता हूँ। वह तो विधाता का ही दूसरा नाम है। वे सर्वान्तर्यामी और सार्वकालिक रूप में हैं, उनका अस्त ही कब है। कि उदय हो। यानी भाग्य के उदय का प्रश्न सदा हमारी अपनी अपेक्षा से है। धरती का रुख सूरज की तरफ हो जाए, यही उसके लिए सूर्योदय है। ऐसे ही मैं मानता हूँ कि हमारा मुख सही भाग्य की तरफ हो जाए तो इसी को भाग्योदय कहना चाहिए। पुरुषार्थ को इसी जगह संगति है अर्थात् भाग्य को कहीं से खींचकर उदय में लाना नहीं, न अपने साथ ही ज्यादा खींचतान करनी है। सिर्फ मुँह को मोड़ लेना है। मुख हम हमेशा अपनी तरफ रखा करते हैं। अपने से प्यार करते हैं, अपने ही को चाहते हैं। अपने को आराम देते हैं, अपनी सेवा करते हैं। दूसरों को अपने लिए मानते हैं, सब कुछ को अपने अनुकूल चाहते हैं। चाहते यह हैं कि हम पूजा और प्रशंसा के केन्द्र हों और दूसरे आस-पास हमारे इसी भाव में मँडराया करें। इस वासना से हमें छुट्टी नहीं मिल पाती।
01 लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम क्यों बताया है?
उत्तर: जिस प्रकार ईश्वर सबके हृदय की बात जानते हैं तथा प्रत्येक काल एवं स्थान पर विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार भाग्य भी हर समय विद्यमान रहता है। इसलिए लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम बताया है।
02 लेखक ने भाग्योदय की तुलना किससे की है और क्यों?
उत्तर: लेखक ने भाग्योदय की तुलना सूर्योदय से की है, जिस प्रकार सूर्य का उदय नहीं होता है, वह तो अपने स्थान पर स्थिर रहता है। पृथ्वी का उसके आस-पास चक्कर लगाते हुए उसका मुँह सूर्य की ओर हो जाता है, तब हम उसे सर्योदय कहते हैं। ठीक इसी प्रकार जिस समय निरन्तर कर्म करते हुए मनुष्य का मख भाग्य की ओर हो तो उसे भाग्योदय कहना चाहिए।
03 लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए क्या आवश्यक होता है?
उत्तर: लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए पुरुषार्थ अर्थात् अपने पौरुष के साथ संगति बैठाना आवश्यक होता है, क्योंकि भाग्योदय के लिए अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर स्वयं को कर्म क्षेत्र से जोड़ना होता है।
04 व्यक्ति किस प्रकार अपने स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं?
उत्तर: व्यक्ति जब अपने नजरिए से जीवन को देखते हैं, स्वयं से प्रेम करते हैं, अपने लिए जीते हैं, अपनी ही सेवा में लगे रहते हैं तथा दूसरे व्यक्तियों को अपना सेवक मानते हुए सभी कुछ अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं। इस प्रकार मनुष्य स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं।
05 ‘भाग्योदय’, ‘सूर्योदय में सन्धि-विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम भी लिखिए।
उत्तर: भाग्योदय = भाग्य + उदय (सन्धि विच्छेद) गुण सन्धि
सूर्योदय = सूर्य + उदय (सन्धि विच्छेद) गुण सन्धि
प्रश्न 2. पुरुषार्थ वह है, जो पुरुष को सप्रयास रखे, साथ ही सहयुक्त भी स्खे। यह जो सहयोग है, सच में पुरुष और भाग्य का ही है। पुरुष अपने अहं से वियुक्त होता है, तभी भाग्य से संयुक्त होता है। लोग जब पुरुषार्थ को भाग्य से अलग और विपरीत करते हैं तो कहना चाहिए कि वे पुरुषार्थ को ही उसके अर्थ से विलग और विमुख कर देते हैं। पुरुष का अर्थ क्या पशु का ही अर्थ है? बल-विकास तो पशु में ज्यादा होता है। दौड़-धूप निश्चय ही पशु अधिक करता है, लेकिन यदि पुरुषार्थ पशुचेष्टा के अर्थ से कुछ भिन्न और श्रेष्ठ है तो इस अर्थ में कि वह केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है, न क्रिया का वेग और कौशल है, बल्कि वह स्नेह और सहयोग भावना है। सूक्ष्म भाषा में कहें तो उसकी अकर्तव्य-भावना है।
01 प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन है?
उत्तर: प्रस्तुत गद्यांश भाग्य और पुरुषार्थ पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं।
02 पुरुषार्थ को भाग्य से अलग क्यों नहीं किया जा सकता है?
उत्तर: लेखक के अनुसार जहाँ पुरुष होता है वहाँ कर्मशीलता होती है और जहाँ कर्मशीलता है, वहाँ भाग्य होता है। इसलिए पुरुषार्थ से भाग्य को अलग करने का अर्थ पुरुषार्थ को उसके अर्थ से अलग करना होता है। अतः पुरुषार्थ को भाग्य से अलग नहीं किया जा सकता।
03 पुरुषार्थ एवं बल में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: पुरुषार्थ एवं बल में कोई सम्बन्ध नहीं होता है। बल क्रिया का वेग एवं कौशल होता है जो पशुओं में अधिक होता है, किन्तु पुरुषार्थ, स्नेह एवं सहयोग की भावना के साथ अन्य व्यक्तियों के साथ अन्तःक्रिया में संलग्न होता है।
04 पुरुषार्थ के लिए लेखक ने क्या आवश्यक माना है?
उत्तर: लेखक के अनुसार, पुरुषार्थ के लिए आवश्यक है- अहंकार का त्याग तथा स्नेह एवं सहयोग के साथ मिल-जुलकर कार्य करना।
05 ‘हाथ-पैर में समास विग्रह करके इसमें प्रयुक्त समास का भेद भी लिखिए।
उत्तर: हाथ और पैर (समास विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।
कृपया अपना स्नेह बनाये रखें ।
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