पाठ 1 : राष्ट्र का स्वरूप

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डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ


प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय

भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व के विद्वान् वासुदेव शरण अग्रवाल का जन्म 1904 ई. में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के खेड़ा नामक ग्राम में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद एम.ए.,पी.एच.डी. तथा डी.लिट. की उपाधि इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने पालि, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं एवं उनके साहित्य का गहन अध्ययन किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में ‘पुरातत्त्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे वासुदेव शरण अग्रवाल दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के भी अध्यक्ष रहे। हिन्दी की इस महान् विभूति का 1967 ई. में स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ:- इन्होंने कई ग्रन्थों का सम्पादन व पाठ शोधन भी किया। जायसी के ‘पदमावत’ की संजीवनी व्याख्या और बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तत करके इन्होंने हिन्दी-साहित्य को गौरवान्वित किया। इन्होंने प्राचीन महापरुषों–श्रीकृष्ण, वाल्मीकि, मनु आदि का आधुनिक दृष्टिकोण से बुद्धिसंगत चरित्र-चित्रण प्रस्तुत किया।

कृतियाँ:- डॉ. अग्रवाल ने निबन्ध-रचना, शोध और सम्पादन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं निबन्ध-संग्रह पृथिवी पुत्र, कल्पलता, कला और संस्कृति, कल्पवृक्ष, भारत की एकता, माता भूमि, वाग्धारा आदि। शोध पाणिनिकालीन भारत। सम्पादन जायसीकृत पद्मावत की संजीवनी व्याख्या, बाणभट्ट के हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन। इसके अतिरिक्त इन्होंने पालि, प्राकृत और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का भी सम्पादन किया।

भाषा शैली:- डॉ. अग्रवाल की भाषा-शैली उत्कृष्ट एवं पाण्डित्यपूर्ण है। इनकी भाषा शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। इन्होंने अपनी भाषा में अनेक प्रकार के देशज शब्दों का प्रयोग किया है, जिसके कारण इनकी भाषा सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक लगती है। इन्होंने प्राय: उर्दू, अंग्रेजी आदि की शब्दावली, मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग नहीं किया है। इनकी भाषा विषय के अनुकूल है। संस्कृतनिष्ठ होने के कारण भाषा में कहीं-कहीं अवरोध आ गया है, किन्तु इससे भाव प्रवाह में कोई कमी नहीं आई है। अग्रवाल जी की शैली में उनके व्यक्तित्व तथा विद्वता की सहज अभिव्यक्ति हुई है। इसलिए इनकी शैली विचार प्रधान है। इन्होंने गवेषणात्मक, व्याख्यात्मक तथा उद्धरण शैलियों का प्रयोग भी किया है।



पाठ का सारांश


प्रस्तुत निबन्ध राष्ट्र का स्वरूप डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के निबन्ध-संग्रह 'पृथिवी पुत्र' से लिया गया है। इस निबन्ध में लेखक बताते हैं कि राष्ट्र का स्वरूप जिन तत्त्वों से मिलकर बना है, वे तीन तत्व हैं-पृथ्वी (भूमि), जन (निवासी) और संस्कृति (आचरण)।

पृथ्वी (भूमि) को समृद्ध बनाने पर बल

लेखक का मानना है कि भूमि का निर्माण देवताओं द्वारा किया गया है तथा इसका अस्तित्व अनन्तकाल से विद्यमान है। इसलिए मानव जाति का यह कर्तव्य है कि वह इस भूमि के प्रति सचेत रहे, इसके रूप को विकृत न होने दे तथा इसे समृद्ध बनाने की दिशा में सजग रहे। लेखक का कहना है कि भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितना अधिक जागरूक रहेंगे, हमारीnराष्ट्रीयता उतनी ही बलवती होगी, क्योंकि हमारी समस्त विचारधाराओं की जननी वस्तुत: यह पृथ्वी ही है। जो राष्ट्रीय विचारधारा पृथ्वी से सम्बद्ध नहीं होती, वह आधारविहीन होती है और उसका अस्तित्व थोड़े समय में ही नष्ट हो जाता है। राष्ट्रीयता का आधार जितना सशक्त होगा, राष्ट्रीयता की भावनाएँ भी उतनी ही अधिक विकसित होंगी। इसलिए प्रारम्भ से अन्त तक पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की जानकारी रखना तथा इसके रूप-सौन्दर्य, उपयोगिता एवं महिमा को पहचानना प्रत्येक मनुष्य का आवश्यक धर्म है।


पृथ्वी : हमारी धरती माता

लेखक का मानना है कि यह पृथ्वी (भूमि) वास्तव में हमारे लिए माँ है, क्योंकि इसके द्वारा दिए गए अन्न-जल से ही हमारा भरण-पोषण होता है।इसी से हमारा जीवन अर्थात् अस्तित्व बना हुआ है। धरती माता की कोख में जो अमूल्य निधियाँ भरी हुई हैं, उनसे हमारा आर्थिक विकास सम्भव हुआ है और आगे भी होगा। पृथ्वी एवं आकाश के अन्तराल में जो सामग्री भरी हुई है, पृथ्वी के चारों ओर फैले गम्भीर सागर में जो जलचर एवं रत्नों की राशियां हैं, उन सबका हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। अत: हमें इन सबके प्रति आत्मीय चेतना रखने की आवश्यकता है। इससे हमारी राष्ट्रीयता की भावना को विकसित होने में सहायता मिलती है।


राष्ट्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं सजीव अंग : मनुष्य

लेखक का मानना है कि पृथ्वी अर्थात् भूमि तब तक हमारे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकती, जब तक इस भूमि पर निवास करने वाले मनुष्य को साथ में जोड़कर न देखा जाए। जो भूमि जनविहीन हो, उसे राष्ट्र नहीं माना जा सकता। राष्ट्र के स्वरूप का निर्माण पृथ्वी और जन (मनुष्य) दोनों की विद्यमानता की स्थिति से ही सम्भव है।’पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका आज्ञाकारी पुत्र हूँ’, इस भावना के साथ तथा माता-पुत्र के सम्बन्ध की मर्यादा को स्वीकार करके प्रत्येक देशवासी अपने राष्ट्र एवं देश के लिए कार्य करते हुए अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सजग हो सकता है। पृथ्वी पर रहने वाले जनों का विस्तार व्यापक है और इनकी विशेषताएँ भी विविध हैं। वस्तुतः जन का महत्त्व सर्वाधिक है। जन के बिना राष्ट्र की कल्पना करना भी असम्भव है।


राष्ट्र की प्रगति समानता के भाव द्वारा ही सम्भव

प्रत्येक माता अपने सभी पुत्रों को समान भाव से प्रेम करती है। इसी प्रकार पृथ्वी भी उस पर रहने वाले सभी मनुष्यों को समान भाव से चाहती है, उसके लिए सभी मनुष्य समान हैं। इसलिए धरती माता अपने सभी पुत्रों को समान रूप से समस्त सुविधाएँ प्रदान करती है। धरती पर रहने वाले मनुष्य भले ही अनेक जातियों, धर्मों, समुदायों से सम्बन्ध रखते हों, किन्तु फिर भी ये सभी मातृभूमि के पुत्र हैं, मातृभूमि के साथ उनका जो सम्बन्ध है, उसमें कोई भेदभाव उत्पन्न नहीं हो सकता। धरती पर सब जातियों के लिए एक समान क्षेत्र है। इसलिए सभी मनुष्यों को देश की प्रगति और उन्नति करने का एक समान अधिकार है। किसी एक जन को पीछे छोड़कर राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। अत: सभी को एक समान रूप से प्रगति और उन्नति करने का अवसर मिलना चाहिए उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। समस्त देशवासियों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने निजी स्वार्थों को त्यागकर तथा संकुचित दायरे से निकलकर उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाएँ। इस प्रकार समानता के भाव द्वारा ही राष्ट्र की प्रगति सम्भव है।


संस्कृति : मनुष्य के मस्तिष्क का प्रतीक

लेखक का मानना है कि यह संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है और संस्कृति के विकास एवं अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अगर भूमि और जन को संस्कृति से अलग कर दिया जाए तो राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। किसी भी राष्ट्र के लिए संस्कृति उसकी जीवनधारा है। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ संस्कृति का विकास करती है। इस प्रकार प्रत्येक जन अपनी भावना के अनुसार अलग-अलग संस्कृतियों को राष्ट्र के रूप में विकसित करता है। अनेक संस्कृतियों के एक साथ रहने के बावजूद सभी संस्कृतियों का मूल आधार पारस्परिक सहिष्णुता एवं समन्वय की भावना है। यही हमारे बीच पारस्परिक प्रेम एवं भाईचारे का स्रोत है तथा इसी से राष्ट्रीयता की भावना को बल मिलता है। लेखक का मानना है कि सहृदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को स्वीकार करता है



( गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)

प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1. भूमि का निर्माण देवों ने किया है, वह अनन्त काल से है। उसके भौतिक रूप, सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा आवश्यक कत्र्तव्य है। भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरूक होंगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी। यह पृथ्वी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है, जो राष्ट्रीयता पृथ्वी के साथ नहीं जुड़ी, वह निर्मूल होती है। राष्ट्रीयता की जड़ें पृथ्वी में जितनी गहरी होंगी, उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा। इसलिए पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की आद्योपान्त जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महिमा को पहचानना आवश्यक धर्म है।

01 प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?

उत्तर: प्रस्तुत गद्यांश ‘राष्ट्र का स्वरूप पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक ‘वासुदेव शरण अग्रवाल’ हैं।

02प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है?

उत्तर: प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने राष्ट्र या देश के प्रथम महत्त्वपर्ण तत्त्व ‘भमि’ या ‘धरती’ के रूप, उपयोगिता एवं महिमा के प्रति सर्तक रहने तथा उसे समृद्ध बनाने की बात पर बल दिया है।

03 लेखक ने हमारे कर्त्तव्य के प्रति क्या विचार प्रस्तुत किए हैं?

उत्तर: लेखक के अनुसार यह धरती या भूमि अनन्तकाल से है, जिसका निर्माण देवताओं ने किया है। इस भूमि के भौतिक स्वरूप, उसके सौन्दर्य एवं उसकी समृद्धि के प्रति सतर्क एवं जागरूक रहना हमारा परम कर्तव्य है।

04 राष्ट्रीयता की भावना कब निर्मूल मानी जाती है?

उत्तर: लेखक के अनुसार हमारी समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी वस्तुतः पथ्वी या धरती है। कोई भी राष्ट्रीयता यदि अपनी धरती से नहीं जुड़ी हो, तो उस राष्ट्रीयता की भावना को निर्मूल एवं निराधार माना जाता है।

05 ‘निर्मूल’ और ‘पल्लवित’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग और प्रत्यय अँटकर लिखिए।

उत्तर: निर्मूल - निर् (उपसर्ग) / पल्लवित - इत (प्रत्यय)।



प्रश्न 2. राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों-युगों में जिस सभ्यता का निर्माण किया है वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबन्धमात्र है; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जाएँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है। भूमि पर बस्ने वाले जन ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा है और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, दोनों के रूप में हमें राष्ट्रीय संस्कृति के दर्शन मिलते हैं। जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति के रूप में प्रकट होती है। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ इस युक्ति को निश्चित करती है और उससे प्रेरित संस्कृति का विकास करती है। इस दृष्टि से प्रत्येक जन की अपनी-अपनी भावना के अनुसार पृथक्-पृथक् संस्कृतियाँ राष्ट्र में विकसित होती हैं, परन्तु उन सबका मूल-आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।


01 लेखक के अनुसार राष्ट्र का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग क्या है?

उत्तर: लेखक ने भूमि एवं जन के बाद राष्ट्र का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग जन की संस्कृति को बताया है। मनुष्य ने युगों-युगों से जिस सभ्यता का निर्माण किया है, वह राष्ट्र के लोगों के लिए जीवन की श्वास के समान महत्त्वपूर्ण है क्योंकि संस्कृति के अभाव में राष्ट्र के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिहन लग सकता

02 संस्कृति से क्या अभिप्राय है?

उत्तर: संस्कृति मनुष्य के मस्तिष्क से निर्मित वह व्यवस्था है, जिसके आधार पर परस्पर सह-अस्तित्व रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विचारों, भावनाओं संवेदनाओं, मूल्यों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं का एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान होता है तथा सामूहिक जीवन सम्भव हो पाता है।

03 राष्ट्र की उन्नति में संस्कृति का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: राष्ट्र की उन्नति एवं विकास में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि संस्कृति के विकास एवं अभ्युदय के फलस्वरूप राष्ट्र के लोगों के मस्तिष्क का विकास होता है, जिससे राष्ट्र की उन्नति एवं वृद्धि सम्भव हो पाती है।

04 जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है’ से लेखक का क्या अभिप्राय है?

उत्तर: जिस प्रकार वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा उसके पुष्प में ही निहित होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के जीवनरूपी वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा, सौरभ संस्कृति रूपी पुष्प में निहित होता है। जीवन के गौरव, चिन्तन, मनन और सौन्दर्य बोध में संस्कृति ही प्रतिबिम्बित होती है।

05 ‘विटप’ तथा ‘पुष्प’ शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए।

उत्तर: विटप – वृक्ष, पेड़, तरु / पुष्प – फूल, कुसम, सुमन







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