पाठ 6 : भाषा और आधुनिकता

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प्रो. जी. सुन्दर रेड्डी, जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ


प्रश्न-पत्र में संकलित पाठों में से चार लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनमें से एक का उत्तर देना होता है। इस प्रश्न के लिए 3+2=5 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय

श्री जी, सुन्दर रेड्डी का जन्म वर्ष 1919 में आन्ध्र प्रदेश में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा संस्कृत एवं तेलुगू भाषा में हुई व उच्च शिक्षा हिन्दी में। श्रेष्ठ विचारक, समालोचक एवं उत्कृष्ट निबन्धकार प्रो. जी. सुन्दर रेड्डी लगभग 30 वर्षों तक आन्ध्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। इन्होंने हिन्दी और तेलुगू साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर पर्याप्त काम किया। 30 मार्च, 2005 में इनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक गतिविधियाँ:- श्रेष्ठ विचारक, सजग समालोचक, सशक्त निबन्धकार, हिन्दी और दक्षिण की भाषाओं में मैत्री-भाव के लिए प्रयत्नशील, मानवतावादी दृष्टिकोण के पक्षपाती प्रोफेसर जी, सुन्दर रेड्डी का व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त प्रभावशाली है। ये हिन्दी के प्रकाण्ड पण्डित हैं। आन्ध्र विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर अध्ययन एवं अनुसन्धान विभाग में हिन्दी और तेलुगू साहित्यों के विविध प्रश्नों पर इन्होंने तुलनात्मक अध्ययन और शोधकार्य किया है। अहिन्दी भाषी प्रदेश के निवासी होते हुए भी प्रोफेसर रेड्डी का हिन्दी भाषा पर अच्छा अधिकार है। इन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

कृतियाँ:-प्रो. रेड्डी के अब तक आठ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी जिन रचनाओं से साहित्य-संसार परिचित है, उनके नाम इस प्रकार हैं-
साहित्य और समाज, मेरे विचार,हिन्दी और तेलुगू : एक तुलनात्मक अध्ययन,दक्षिण की भाषाएँ और उनका साहित्य , वैचारिकी शोध और बोध, वेलुगु वारुल (तेलुगू),‘लैंग्वेज प्रॉब्लम इन इण्डिया’ (सम्पादित अंग्रेजी ग्रन्थ)



पाठ का सारांश


पप्रस्तुत निबन्ध में लेखक प्रो. जी, सुन्दर रेड्डी ने वैज्ञानिक दृष्टि से भाषा और आधुनिकता पर विचार किया है।

भाषा परिवर्तनशील है

लेखक कहता है कि भाषा में हमेशा परिवर्तन होता रहता है, भाषा परिवर्तनशील होती है। परिवर्तनशील होने का अभिप्राय यह है कि भाषा में नए भाव, नए शब्द, नए मुहावरे एवं लोकोक्तियों, नई शैलियाँ निरन्तर आती रहती हैं। यह परिवर्तनशीलता ही भाषा में नवीनता का संचार करती है और जहाँ नवीनता है, वहीं सुन्दरता है। भाषा समृद्ध तभी होती हैं, जब उसमें नवीनता तथा आधुनिकता का पर्याप्त समावेश हो। कूपमण्डूकता भाषा के लिए विनाशकारी है। भाषा जिस दिन स्थिर हो गई, उसी दिन से उसमें क्षय आरम्भ हो जाता है। वह नए विचारों एवं भावनाओं को वहन करने में असमर्थ होने लगती है और अन्ततः नष्ट हो जाती है।

मनुष्य के विकास में समाज का दायित्व

लेखक ने मनुष्य के विकास में समाज के दायित्व को महत्त्वपूर्ण माना है। लेखक के अनुसार इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भरण-पोषण, शिक्षण, स्वस्थ एवं क्षमता की अवस्था तथा अस्वस्थ एवं अक्षमता की अवस्था में उचित अवकाश की व्यवस्था करने और जीविकोपार्जन की जिम्मेदारी समाज की है। प्रत्येक सभ्य समाज किसी-न-किसी रूप में इसका पालन भी करता है। लेखक ने समाज द्वारा मनुष्य का उचित ढंग से निर्वाह करने को प्रगति का मानदण्ड माना है, इसलिए लेखक का मानना है कि न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी, शिक्षा, जीविकोपार्जन के लिए रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण को हमें मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार करना होगा। ‘

संस्कृति का अभिन्न अंग

लेखक का मानना है कि भाषा संस्कृति का अभिन्न अंग है। संस्कृति का सम्बन्ध परम्परा से होने पर भी वह गतिशील एवं परिवर्तनशील होती हैं। उसकी गति का सम्बन्ध विज्ञान की प्रगति से भी है। नित्य होने वाले नए-नए वैज्ञानिक आविष्कार अन्ततः संस्कृति को प्रभावित ही नहीं करते, बल्कि उसे परिवर्तित भी करते हैं। इन वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप जो नई सांस्कृतिक हलचले उत्पन्न होती है, उसे शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है, क्योंकि भाषा का परम्परागत प्रयोग उसे अभिव्यक्त करने में पर्याप्त सक्षम नहीं होता।

भाषा में परिवर्तन कैसे सम्भव है?

लेखक का मानना है कि भाषा को युगानुकूल बनाने के लिए किसी व्यक्ति विशेष या समूह का प्रयत्न होना चाहिए। हालाँकि भाषा की गति स्वाभाविक होने के कारण वह किसी प्रयत्न विशेष की अपेक्षा नहीं रखती, लेकिन प्रयत्न विशेष के कारण परिवर्तन की गति ती अवश्य हो जाती है। भाषा का नवीनीकरण सिर्फ कुछ पण्डितों या आचार्यों की दिमागी कसरत ही बनी रहे, तो भाषा गतिशील नहीं हो पाती। इसका सीधा सम्पन्न जनता से एवं जनता द्वारा किए जाने वाले प्रयोग से है, जो भाषा जितनी अधिक जनता द्वारा स्वीकार एवं परिवर्तित की जाती है, वह उतनी ही अधिक जीवन्त एवं चिरस्थायी होती है। साथ ही साथ, भाषा में आधुनिकता एवं युग के प्रति अनुकूलता भी तभी आ पाती है।



( गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर)

प्रश्न-पत्र में पद्म भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1. रमणीयता और नित्य नूतनता अन्योन्याश्रित हैं, रमणीयता के अभाव में कोई भी चीज मान्य नहीं होती। नित्य नूतनता किसी भी सृजक की मौलिक उपलब्धि की प्रामाणिकता सूचित करती है और उसकी अनुपस्थिति में कोई भी चीज वस्तुत: जनता व समाज के द्वारा स्वीकार्य नहीं होती। सड़ी-गली मान्यताओं से जकड़ा हुआ समाज जैसे आगे बढ़ नहीं पाता, वैसे ही पुरानी रीतियों और शैलियों की परम्परागत लीक पर चलने वाली भाषा भी जनचेतना को गति देने में प्रायः असमर्थ ही रह जाती है। भाषा समूची युगचेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है और ऐसी सशक्तता वह तभी अर्जित कर सकती है, जब वह अपने युगानुकूल सही मुहावरों को ग्रहण कर सके।

01 लेखक के अनुसार किसके अभाव में कोई भी वस्तु महत्त्वपूर्ण नहीं होती?

उत्तर: सुन्दरता के बिना कोई भी वस्तु महत्वपूर्ण नहीं हो सकती और न ही उसे मौलिकता की मान्यता मिल सकती हैं, क्योंकि जो वस्तु सुन्दर होगी, वह नवीन भी होगी, उसमें सुन्दरता भी रहेगी।

02 किसी लेखक की रचना में मौलिकता का बड़ा प्रमाण क्या है?

उत्तर: किसी भी लेखक या रचनाकार की रचना में मौलिकता का सबसे बड़ा प्रमाण उसकी रचना में व्याप्त नवीनता है, क्योंकि रचना में व्याप्त नवीनता के कारण ही समाज उस रचना के प्रति आकर्षित होता है।

03 लेखक के अनुसार किस रचना को समाज में स्वीकृति नहीं मिल पाती?

उत्तर: लेखक के अनुसार नवीनता के अभाव में कोई भी वस्तु जनता और समाज के द्वारा स्वीकार नहीं की जाती, क्योंकि यदि कोई रचनाकार अपनी रचना में नवीन एवं मौलिक दृष्टि का अभाव रखता हो, तो उस रचना को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाती।

04 युग चेतना की अभिव्यक्ति करने का सशक्त माध्यम क्या हैं?

उत्तर: भाषा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। भाषा समाज, जनचेतना एवं युग के अनुरूप सटीक तथा नयीन मुहावरों को ग्रहण कर युग-चेतना लाने का एक अथक प्रयास है।

05 ‘रमणीयता’ और ‘अभिव्यक्ति शब्दों में क्रमशः प्रत्यय एवं उपसर्ग छाँटकर लिखिए।

उत्तर: रमणीयता – ता (प्रत्यय) अभिव्यक्ति – अभि (उपसर्ग)



प्रश्न 2. भाषा स्वयं संस्कृति का एक अटूट अंग है। संस्कृति परम्परा से नि:सृत होने पर भी परिवर्तनशील और गतिशील है। उसकी गति विज्ञान की प्रगति के साथ जोड़ी जाती है। वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव के कारण उद्भूत नई सांस्कृतिक हलचलों को शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा के परम्परागत प्रयोग पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए नए प्रयोगों की, नई भाव-योजनाओं को व्यक्त करने के लिए नए शब्दों की खोज की महती आवश्यकता है।


01 संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग किसे माना गया है?

उत्तर: ‘भाषा’ किसी भी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग होती है, क्योंकि भाषा का निर्माण समाज के द्वारा किया गया है। भाषा समाज में अभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

02 भाषा परिवर्तनशील क्यों हैं?

उत्तर: समाज द्वारा निर्मित भाषा परिवर्तनशील है, क्योंकि समय के साथ परम्पराएँ, रीतियाँ, मूल्य आदि परिवर्तित होते हैं जिसका प्रभाव भाषा पर पड़ता है, इसलिए भाषा में परिवर्तन होना आवश्यक होता है।

03 भाषा में नई वाक्य-संरचना की आवश्यकता क्यों पड़ती हैं?

उत्तर: विज्ञान की प्रगति के कारण नए आविष्कारों का जन्म होता है। जिस कारण प्रत्येक देश की संस्कृति प्रभावित होती है और इन प्रभावों से संस्कृति में आए परिवर्तनों को अभिव्यक्त करने के लिए नई शब्दावली एवं नई वाक्य-संरचना की आवश्यकता पड़ती है।

04 प्रस्तुतः गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है?

उत्तर: लेखक ने शब्दों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने पर ही बल दिया है, क्योंकि कोई विदेशज शब्द यदि किसी भाव को सम्प्रेषित करने में सक्षम है, | तो उसमें अनावश्यक परिवर्तन नहीं करना चाहिए।

05 ‘विज्ञान’ एवं ‘प्रगति’ शब्दों में उपसर्ग छाँटकर लिखिए।

उत्तर: वि (उपसर्ग), प्रगति – प्र (उपसर्ग)







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